Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
9 Dec 2024 · 7 min read

(गीता जयंती महोत्सव के उपलक्ष्य में) वेदों,उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता में 'ओम्' की अवधारणा (On the occasion of Geeta Jayanti Mahotsav) Concept of 'Om' in Vedas, Upanishads and Srimad Bhagavad Gita)

ओम् के साथ तीन की संख्या महत्वपूर्ण है! प्रसिद्ध वैदिक विद्वान शिवशंकर शर्मा के अनुसार तीन वेदों से तीन अक्षर ग्रहण किये हुए हैं! ओम् के साथ में तीन बार शांति का प्रयोग होता है!अग्नि, वायु आदित्य आदि तीन देवता हैं! तीन प्रकार की अग्नि गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि हैं! वेदों की रचनाएँ पद्यात्मक, गद्यात्मक, गानात्मक आदि तीन प्रकार की होती हैं! ऋण भी ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण होते हैं! माता, पिता, आचार्य आदि तीन गुरु होते हैं! आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक आदि तीन प्रकार के दुख होते हैं! सत्व, रजस, तमस आदि तीन गुण होते हैं! ईश्वर, जीव, प्रकृति आदि तीन ही अनादि पदार्थ होते हैं! ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि तीन देवता और लक्ष्मी, सरस्वती, काली आदि तीन देवियाँ होती हैं! आधुनिक विज्ञान परमाणु को इलैक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रॉन में विभाजित करता है! ओम् में मौजूद तीन की संख्या का ही यह सब विस्तार है!सभी लिपियों की शुरुआत अकार से ही होती है! पाणिनि अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना अष्टाध्यायी को अकार से ही शुरू करते हैं! अ इ उ ण! ऋ लृ क्!ग्रंथ की समाप्ति भी महर्षि पाणिनि अ अ! अकार से ही करते हैं! अष्टाध्यायी ज्ञात इतिहास में उत्पन्न होकर वर्तमान में मौजूद तथा काल के प्रवाह में समा चुकी सभी संस्कृतियों, मजहबों, संप्रदायों, मतों, वादों में सत्य तक पहुंचने तथा उसकी अभिव्यक्ति में अनेक मतभेद मौजूद हैं! लेकिन ‘ओम्’ के संबंध में सभी एकमत हैं!परमात्मा, आत्मा, प्रकृति,पूजापाठ, उपासना आदि के संबंध में विभिन्न भेदों के होते हुये भी ‘ओम्’ के महत्व के संबंध में सभी एकमत हैं!ओम्,ओ३म्,ओंकार,प्रणव, उद्गीथ, सोहं, अनाहत नाद,टैट्राग्रैमेटोन, एमन,आमीन, ओमनी,ओमनीपेटेंट, ओमनीपरेजैंट आदि शब्द या संबोधन इसी की तरफ संकेत कर रहे हैं! आचार्य रजनीश ने तो यहाँ तक कहा है कि ओम् कोई शब्द नहीं है अपितु परमपिता परमेस्वर अस्तित्व का एक प्रतीक या सिंबल है!स्वामी दयानंद सरस्वती ने ओम् को उपासना के लिये सर्वाधिक महत्व दिया है!स्वामी विवेकानंद ने ओम् को परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग कहा है!आचार्य प्रशांत ने इसे ध्वनि न कहकर तुरीय परा अद्वैत ब्रह्म कहा है! वैदिक भौतिकशास्त्री आचार्य अग्निव्रत ने इसे अस्तित्व की सबसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म रश्मि बतलाया है!समकालीन राजनीतिक और व्यापारी धर्माचार्य कहलाने वाले जग्गी वासुदेव, श्री श्री रविशंकर, रामदेव तथा सेठ देवी दयाल से पैदा हुई राधास्वामी आदि आजकल की बीसियों शाखाओं ने भी सुरत शब्द योग के रुप में ओम् को महत्व दिया है!इनके अनुसार इसे शब्द, धुन, आसमानी आवाज, लोगोस, रूहानी आवाज आदि कहा जाता है!कहने का आशय यह है कि ‘ओम्’ के महत्व को सबने स्वीकार किया है!

मनुष्य के श्वास लेते समय ‘सो’ तथा छोडते समय ‘हम्’ ध्वनि अपने आप होती रहती है!इसी का संक्षिप्त रुप ‘ओम्’ है!इस तरह से श्वासोच्छवास क्रिया में भी ओम् का जप होता रहता है! यह अपने आपमें योगाभ्यास के अंतर्गत एक धारणा की विधि है!लेकिन आजकल ‘ओम्’ के जप की जितनी भी धारणा या ध्यान की विधियाँ विभिन्न धर्माचार्यों या योग गुरुओं द्वारा करवाई जा रही हैं,उनमें शास्त्रीय मर्यादा का कोई अनुशासन नहीं है! बिना साधक की मानसिकता को ध्यान में रखे कुछ भी ऊटपटांग अभ्यास करवाये जा रहे हैं! इस प्रकार के योगाभ्यास से सामयिक राहत मिलने के सिवाय कोई आध्यात्मिक प्रगति या अनुभूति नहीं हो रही है! ‘ओम्’ जप या धारणा या ध्यान या योगाभ्यास के जितने भी रुप संसार में मौजूद हैं, उनको वेदों और उपनिषदों से ही ग्रहण किया गया है! विदेशीय धरती पर यहुदी,पारसी, रोमन,ईसाई, इस्लामिक तथा भारत में शैव,वैष्णव,तंत्र, बौद्ध, जैन,सिख, संत परंपरा, तथा आधुनिक स्वामी दयानंद, विवेकानंद,योगानन्द, शिवानन्द,राधास्वामी, आचार्य रजनीश,जग्गी वासुदेव,श्री राम शर्मा आचार्य, प्रभात रंजन सरकार,आचार्य अग्निव्रत आदि सभी ने ‘ओम्’ के रहस्य और साधना को वेदों से ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ग्रहण किया है!इसमें कोई संदेह की संभावना नही है!
चारों वेदों की ऋचाओं में ‘ओम्’ की महिमा विद्यमान है! वेदों की हरेक ऋचा में ओम आता ही है! महर्षि मनु के अनुसार वेदों की ऋचाओं के शुरू और अंत में ओम् का पाठ करना चाहिये! इस तरह से वेदों में जितनी ऋचाएँ हैं,उनसे दोगुना संख्या में ओम् का पाठ मौजूद है!शिवशंकर शर्मा के मत से सामवेद गान के पांच विभाग हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार, निधन आदि होते हैं!अथर्ववेद, 9/6/5 में इसका संकेत हुआ है!

ऋग्वेद, 1/3/7 में ब्रह्म के समीप बैठने वाले को ओमास कहा गया है! यजुर्वेद, 2/13 में ओम् को हृदय में वास करने की प्रार्थना की गई है!

ऐतरेय ब्राह्मण 5/36 में ओम् के अकार, उकार, मकार को ब्रह्म के तीन गुण कहा है! शतपथ ब्राह्मण में ओम् के द्वारा ज्ञानी के वेदों को जानना कहा है! गोपथ ब्राह्मण में ओम् के नहीं जानने से ब्रह्म के नहीं जानने की बात कही है! गोपथ ब्राह्मण में ओम् द्वारा आसुरी शक्तियों को जीतना बतलाया गया है!

छांदोग्य उपनिषद में ओम् द्वारा ब्रह्म की उपासना करने को कहा है! ईशोपनिषद में मरण समय पर ओम् की उपासना का विधान कहा गया है! प्रश्नोपनिषद में ओम् उपासना से ब्रह्मानुभूति को कहा है! मुंडकोपनिषद में ब्रह्म की उपासना के लिये ओम् की मदद लेने को कहा गया है! पूरा का पूरा मांडूक्य उपनिषद ओम् की साधना और उपासना से भरा हुआ है!इस संदर्भ में चेतना की चार अवस्थाओं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय तथा बैखरी, मध्यमा, पश्यंति, परा का जिक्र आता है! तैत्तिरीय उपनिषद के एक ही अनुवाक में नौ बार ओम् शब्द आया है! बृहदारण्यक उपनिषद में भी ओम् शब्द कयी बार आया है! छांदोग्य उपनिषद, 1/1/1 में ओंकार को परमात्मा का प्रतीक कहकर उसकी उपासना करने को कहा है! कठोपनिषद में ओंकार को अक्षर ब्रह्म कहा गया है!

इस तरह ओम् का योगाभ्यास करने से अंतरायों का विनाश होकर अंत:करण में स्थित चेतना रुप आत्मा का साक्षात्कार होता है!

सनातन संस्कृति में ओम् शब्द ब्रह्मवाचक है!
संस्कृत भाषा की वर्णमाला भी ‘अ’ से शुरू होकर ‘उ’ से होते हुये ‘म’ पर समाप्त होती है!सभी व्यंजनों में स्वर ‘अकार’ व्यापक है!इसके माध्यम से भी ब्रह्म की सर्वव्यापकता का उपदेश किया गया है! ‘अ’ यानि ब्रह्म, ‘उ’ यानि जीव, ‘म’ यानि प्रकृति!संसार में पहले जीव और प्रकृति ही दिखाई पडते हैं! बुद्धिमान साधना संपन्न होने पर ब्रह्म की सर्वव्यापकता का बोध हो जाता है! अकार और उकार स्वर हैं, जबकि मकार व्यंजन है!अकार और उकार का उच्चारण स्वयंमेव होता है, जबकि मकार को अन्य की जरूरत पडती है! इससे परमात्मा और आत्मा की स्वतंत्रता तथा प्रकृति की परतंत्रता का बोध होता है! ‘ओंकार निर्णय’ पुस्तक में शिवशंकर शर्मा ने कहा है कि तांत्रिक मंत्रों में मकार का अनुस्वार बिंदु कहलाता है! क्योंकि तंत्र में सर्वत्र माया की प्रधानता है! तंत्र में ‘ह्रीं’ के स्थान पर ‘ह्रीम्’ होना चाहिये लेकिन क्योंकि तांत्रिक लोग माया को नीचा नही रखना चाहते हैं, इसलिये यह किया है! तंत्र में ओम् का सनातन वैदिक अर्थ ही किया गया है!सभी मंत्रों में ओम् का ही प्रयोग होता है!

ओम् एक पवित्र ध्वनि है, जिसे कई प्राचीन दार्शनिक ग्रंथों द्वारा ब्रह्मांड की ध्वनि माना जाता है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार ओम् शब्द वो बीज है, जिससे दुनिया की सारी ध्वनियां और शब्दों का निर्माण हुआ है। ओम् शब्द का अर्थ सृजन से है। संस्कृत भाषा में ओम् को प्रणव कहा जाता है, जिसका अर्थ है गुंजन और इसे असीमित या शाश्वत् ध्वनि माना जाता है। यह शब्द सनातन भारतीय संस्कृति, जैन मत, बौद्ध मत, हिंदू मत, तंत्र मत,संत मत से जुड़ा हुआ है। ओम् का जप एक आध्यात्मिक अभ्यास है, जो संस्कृति और धर्म से परे है और इसमें भगवान् या सृष्टिकर्त्ता की सभी संभावित परिभाषाएं और व्याख्याएं शामिल हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता, 8/12-13 में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च!

मूर्ध्नया धायात्मन: प्राणामास्थितो योगधारणाम्!!

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।

अर्थात् जो पुरुष सभी इंद्रियों के द्वारों को बंद करके तथा मन को हृदय में स्थिर करके प्राण को मस्तक में धारण करके परमात्मा संबंधी योग धारणा में स्थित होकर ओम् इस एक अक्षररूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर का त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति मोक्ष को प्राप्त होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता, 17/23 में कहा गया है-

ओम् तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:!

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता पुरा!!

अर्थात् ओम् तत् सत् – ऐसे यह तीन प्रकार का ब्रह्म का नाम कहा है! उसी से ब्राह्मण, वेद और यज्ञ आदि रचे गये!

महर्षि पतंजलि प्रणीत ʹयोगसूत्रʹ में कहा गया है-

तस्य वाचक प्रणवः!!तज्जपस्तदर्थभावनम्!!(समाधिपाद, 27-28) अर्थात् ईश्वर का वाचक प्रणव है। उस ૐकार का जप, उसके अर्थस्वरूप परमेश्वर का पुनः पुनः स्मरण-चिंतन करना चाहिए।

महर्षि वेदव्यास कहते हैं –

मन्त्राणां प्रणवः सेतु!! अर्थात् ओम् मंत्रों को पार करने के लिए अर्थात् सिद्धि के लिए पुल के समान है।

गुरु नानक ने भी कहा है-

ओम् शब्द जप रे,

ओंकार गुरमुख तेरे।

ओम् अस्वर सुनहु विचार,

ओम्’ अस्वर त्रिभुवन सार।

प्रणवों आदि एक ओंकारा, जल, थल महियल कियो पसारा।।

इसलिये यह आवश्यक है कि सभी पंथ, मत, वाद, मजहब, संप्रदाय, रिलीजन से ऊपर उठकर ओम् की उपासना करो! अपने को सबसे बड़ा मानकर अन्यों की उपेक्षा न करें!अपने ‘एसेज आन गीता’ के पहले ही अध्याय में महर्षि अरविन्द ने ठीक ही कहा है कि अधकचरे ज्ञानी अथवा सर्वथा अज्ञानी मनुष्यों के

विविध मन इन सब में ऐसी अनन्य बुद्धि और आवेश से अपने आपको बांधे हुये हैं कि जो कोई जिस ग्रंथ या मत को मानता है, वह उसी को सब कुछ जानता है! यह देख भी नहीं पाता है कि उसके परे ओर भी कुछ है!

आचार्य शीलक राम

दर्शनशास्त्र-विभाग

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय

कुरुक्षेत्र -136119

Loading...