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11 Nov 2024 · 1 min read

क़ुर्बान ज़िंदगी

जो भी पल थे वो बिखरते चले गये ,
जो भी अपने थे वो बिछड़ते चले गये ,

हम इक मुकाम पर खड़े बस
तमाशा देखते रहे ,
कुदरत पर बस नहीं था ,
मुक़द्दर का शिकवा करते रहे ,

वक्त की करवट और ज़माने की फ़ितरत पर
कोई भरोसा नहीं था ,
इस ज़िंदगी के सफ़र में कोई अपना सा
दर्दमंद नहीं था ,

ख़ाव्हिशें थी कुछ वो दफ़्न
होकर रह गई ,
ज़िंदगी इस क़दर औरों की ख़ातिर क़ुर्बान
होकर रह गई ।

Language: Hindi
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