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9 Nov 2024 · 1 min read

sp47 खड़े थे खाई के/ सांसों का सफर

sp47खड़े थे खाई के/ सांसों का सफर
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खड़े थे खाई के आगे न बढ़ने की पड़ी हिम्मत
अंधेरी रात थी इतनी कुआँ भी पीछे गहरा था

शिकायत किससे करते हम और होती कैसे सुनवाई
वहां का राजा अंधा था जहां हाकिम भी बहरा था

मगर वापस चले जाने में भी उलझन गजब की थी
दिए की रोशनी कम थी लगा पहरे पे पहरा था

बहुत सोचा चले जाएं हम कर ले वापसी अपनी
मगर हिम्मत बढ़ाने को वही पुरनूर चेहरा था

नहीं अब देखना मुड़कर तुम्हें चलते ही जाना है
बढ़ाने के लिए हिम्मत वही सपना सुनहरा था
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सांसों के सफर का पता नहीं कब चलते-चलते थम जाए
संतोष मिले जो पाया है उसमें ही यह मन रम जाए

दुनिया के अंधेरे जंगल में झुरमुट में उजाला दिखे कहीं
ना चांद सितारे हाथ आयें हो दूर घना यह तम जाए

आना जाना सबका तय है जो आया है वह जाएगा
पर पिघल रहे इन रिश्तो में थोड़ी सी बर्फ तो जम जाए

हर ज्वालामुखी से लावा की इक नदी सी बहने लगती है
पूरी बस्ती यह मनाती है हो आंच जरा सी कम जाए

वेदना हमारी दबी रहे और धार कलम की पैनी हो
कवि मन ना कभी ये चाहेगा हो आँख किसी की नम जाए
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डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव
यह भी गायब वह भी गायब

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