Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
23 Oct 2024 · 1 min read

क़दमों को जिसने चलना सिखाया, उसे अग्नि जो ग्रास बना गया।

लाखों सवाल करता वो मौन, यूँ मौन में समा गया,
कि जवाबओं की तलाश में, जीवंत वृक्ष का हर पत्ता मुरझा गया।
संवेदनहीन हवाओं ने भी, अश्रुओं को गिरा दिया,
आसमां में चमकता एक तारा जब, टूटकर क्षितिज से टकरा गया।
बंजर भूमि की चीख उठी यूँ, कि ज़र्रा ज़र्रा थर्रा गया,
उसकी हीं कोख़ का अंश था जिसे कोई, राख समझ सतह पर उसके बिखरा गया।
श्वास कीड़ा जो बंद पड़ी, और वक़्त को वो ठुकरा गया,
स्तब्ध हुए नैनों में वो क्षण, शाश्वत दृश्य सा बर्फ जमा गया।
अब चीख़ नहीं अब विलाप नहीं, शून्यता का सन्नाटा छा गया,
एक चेतना है जो सुषुप्त पड़ी है, जिसे विस्मृति भी बिसरा गया।
मृदु हृदय की कोमलता ने, पाषाणता के के अवयवों को अपना लिया,
सिहरता है आवलंबन अब भी, जो स्वप्न में स्नेह वो झलका गया।
अभिलाषाओं की श्रृंखला नहीं, बस एक क्षण का मिलान भी तरसा गया,
मृगतृष्णा के भ्रम में मन ये, यथार्थ को अपने भुला गया।
रौशनी के मध्य खड़े पर, अस्तित्व पर अंधकार सा छा गया,
क़दमों को जिसने चलना सिखाया, उसे अग्नि जो ग्रास बना गया।

Loading...