Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
22 Oct 2024 · 2 min read

राहत भरी चाहत

ना आसमानों को छूने की हसरत।
ना ही तारे तोड़ लाने की चाहत।।
खिसकती जमीन पर खड़ा रहना।
आज की ये ही सबसे बड़ी राहत।।

कई बार चाहा नदी बन जाऊं।
ये बंजर-मंजर बना दूं उपजाऊ।।
रख हौसले-इरादे ऊंचे हिमालयी।
मन में सागर सी गहराई लाऊं।।

बरसते बादल सा प्रेम बरसाऊं।
तन संग मन भी भिगोते जाऊं।।
कोरे रहे जो मन बिन प्रेमजल।
प्रेमिल बूंदों से उन्हें भी भिगाऊं।।

कही तो गहरी झील के किनारे।
बैठूं लगा पीठ पत्थर के सहारे।।
जहां से ये चंचल मन सब देखें।
और बस ये ऑखें केवल निहारे।।

कई-कई बार यूं ही चाहा है मैंने।
उड़ू फैला हाथ जैसे पंछी के डैंने।।
तैरता रहूं हवाओं में जैसे मछली।
लहराऊं चमकता जैसे बिजली।।

कई बार चाहा मैं भी बहता रहूं।
सीमाओं के आर-पार जैसे नदियां।।
स्वछंद उड़ सरहदों के आर-पार।
जी लूं पल क्षणिक जैसे सदियां।।

हरी मैदानी घास में पसर जाऊं।
मन में भी घास का असर लाऊं।।
जो नर्म नाजुक दबके भी दमके।
ऐसा सहनशील पाठ कहां पाऊं।।

चलते-चलते ही दूर निकल जाऊं।
ऊंचे पहाड़ों से घाटीयों में आऊं।।
नदी किनारे टूटे कंकड़ों के जैसे।
‘मैं’ को तोड़ के मैं भी बिखर जाऊं।।

बैठ जाऊं खेतों की मेड़ किनारे।
जोते हो किसान बैलों के सहारे।।
सोंधी-सोंधी सी महक मिट्टी की।
मेरी सांसों से मेरा मन निखारे।।

भर जाऊं जोश से ताने सीना।
जब देखूं बहादुर देश की सेना।।
शत-शत नमन उसे करना चाहूं।
चुने जो देश रक्षा में जीवन देना।।

देखूं दर्शक दीर्घा में बैठ कही।
खेलते बच्चों की उठ-बैठ सही।।
ये खेलते-कूदते नन्ही जिंदगियां।
जहां हंसे-खेलें बनाए पैठ वही।।

ये चंचल मन यूं ही चाहता रहे।
मंजर मनपसंद मेरा चहेता रहे।।
जो रखें जिंदा मेरी ये सजिंदगी।
मुझसे मुस्करा कर कहता रहे।।
~०~
अक्तूबर २०२४, ©जीवनसवारो

Loading...