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22 Oct 2024 · 1 min read

आकांक्षाएं और नियति

आकांक्षाओं के बिखरते बीज कहाँ, प्रतिफल की फ़सलें उगाते हैं,
क्षितिज की अपनी हीं विवशताएँ हैं, वो नियति को आवश्यक बताते हैं।
सिक्कों के चित्त-पट सी शत्रुता इनकी, एक माने तो दूजे की रुसवाई दिखाते हैं,
दो राहों के मध्य की संकीर्णता में, अस्तित्व कहीं गुम जाते हैं।
किनारों पर यूँ हीं बैठ कर, लहरों से लाड लगाते हैं,
ऐसा सामना तूफानों से हुआ, जो अरमानों की चिता जलाते हैं।
नादानियों की आवोहवा में, यथार्थ की अवहेलना कर जाते हैं,
साहिलों से भटकी नाव को, अंततः मांझी भी हंसकर ठुकराते हैं।
इस दुनिया के रंगमंच पर, हम खुद का किरदार निभाते हैं,
कभी फूलों भरी राहें तो कभी, काँटों से भरे गलियारे क़दमों को बुलाते हैं।
अपने – अपने किस्से का सारांश, अपनी हीं कलम से लिखवाते हैं,
कोई तोड़कर चला जाता है, तो कुछ टूट कर बिखर जाते हैं।
आकांक्षाएं और नियति एक – दूसरे को कब लुभा पाते हैं,
एक धरा पर साँसें छोड़ती है तो, एक सितारों में खुद को छुपाते हैं।
आकांक्षाओं के बिखरते बीज कहाँ, प्रतिफल की फ़सलें उगाते हैं,
क्षितिज की अपनी हीं विवशताएँ हैं, वो नियति को आवश्यक बताते हैं।

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