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19 Oct 2024 · 1 min read

व्यथा

उमर बढ़ती का असर,
अब न महकें वर्ण स्वर ।
महकती संवेदना
भुला दे या माफ़ कर ।

बात तब की और थी
थी खुशी की वो डगर ।
छुआ था हमने उन्हें
जाते हुए को दौड़ कर ।

चले जितना चल सके
और चल सकते अगर ।
गीत में साथ देती
ठुमकने को ये कमर ।

डूबते किनारों की
कौन सुघि ले कबतलक
परिस्थिति मारे जिसे
हो नहीं उसको खबर ।

दूरियां हों भले ही
एक है लेकिन शहर ।
आज भी हम छिड़कते
एक दूजे पर उमर ।

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