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27 Jul 2024 · 1 min read

नकाब ….

नकाब ….

तमाम शब्
अधूरी सी इक नींद
ज़हन की
अंगड़ाई में
छुपाये रहती हूँ

इक *मौहूम सी मुस्कान
लबों पे थिरकती रहती है

सुर्ख रूख़सारों पे ज़िंदा है
तारीकी के पर्दे में लिया
गर्म अहसास का
वोनर्म सा इक बोसा

डर लगता है
सहर की शरर
मेरी हया की नकाब को
बे-नकाब न कर दे
छुपाया था जिसे
अपनी साँसों से भी
कहीं
ज़माने को
वो ख़बर न कर दे

*मौहूम=भ्रमित

सुशील सरना

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