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17 Jul 2024 · 2 min read

रजस्वला

जिन रज कणों से मानव देह का निर्माण प्रक्रिया प्रारंभ होकर सृष्टि की सार्थकता को परिभाषित करती है, वही रक्त कण स्वयं में अपवित्र कैसे हो सकता है?

“रजस्वला” होना किसी भी स्त्री के जीवन का एक सुखद व नैसर्गिक घटना है किंतु उनकी यह अवस्था हमेशा से अलग-अलग मिथकों, आडंबरो और वर्जनाओं सें घिरा रहा है।

कहीं न कहीं यह महत्त्वपूर्ण कारक है जिससे शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक रूप में स्त्रियों का जीवन-शैली बुरी तरह प्रभावित हुआ है। खासकर वो स्त्रियाँ जो सुदूर ग्रामीण पृष्ठभूमि में निवास करती हैं। इतना ही नहीं विषय की अनभिज्ञता और असहजता के कारण संक्रमण और गंभीर बीमारियों से कईयों के जान भी जा चुके है।

अतीत में इस विषय पर चर्चा भी वैचारिक अतिक्रमण का शिकार हुआ है जिसका मुख्य कारण निश्चित रूप से सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रहा है किंतु आज के आधुनिक समय में हमें युगांतर से चली आ रही रूढ़ियों की प्रासंगिकता पर नज़र डालने की आवश्यकता है।

जीवन का एक आवश्यक पक्ष जो हमेशा विमर्शों, और तथ्यों के अनुसंधान की दृष्टि से हाशिए पर और लेखन से अछूता रह जाता है, “रजस्वला” उस पक्ष को अर्थात रजोधर्म से संबंधित विचारों की संकीर्णता को पारंपरिक आडम्बरों से इतर अपनी वैज्ञानिक व तार्किक दृष्टिकोण से विकीर्णता प्रदान करती है

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। विज्ञान की दृष्टि से देखें तो महाविस्फोट के उपरांत ये दुनिया निरंतर अपने फैलाव को सुनिश्चित कर रही है। जन्म से मृत्यु तक के सफर में हम हर क्षण परिवर्तन को महसूस करते हैं।

जब ये पूरी सृष्टि अपनी बदलाव की धूरि पर टिकी है तो क्यों न हम भी समय के साथ अपने घिसे-पीटे प्रतिमानों की संकीर्णता को परिवर्तित कर अपनी विचारों को नवीनता प्रदान करें?

और हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि पुरानी इमारतों की कुर्बानियों के पश्चात ही नये इमारतों का निर्माण प्रक्रिया प्रारंभ होती है क्योंकि ये आवश्यक नहीं है कि जो रवायत अतीत में प्रासंगिक था वो वर्तमान में भी हो।

यह पुस्तक ऐसी ही पुरानी जर्जर और मटमैले विचारों की परिपाटी को तोड़ने का प्रयास है जो सृष्टि की आधी आवादी के साथ भेद-भाव के बर्ताव का निर्धारण करती हैं।

– के.के.राजीव

Language: Hindi
135 Views
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