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17 Jul 2024 · 1 min read

एक अधूरी सी दास्तान मिलेगी, जिसकी अनकही में तुम खो जाओगे।

ये ज़िन्दगी जैसी दिखती है, क्या इसे कभी वैसा पाओगे,
कुछ पहेलियों को सुलझाने में, तुम खुद हीं उलझ जाओगे।
नज़ारे तो बिखरे पड़े हैं बहुत, पर तस्वीरों में किसे सजाओगे,
क्षणभंगुर हैं दृश्य यहां, तुम किस दृश्य में खुद को पाओगे।
वो समंदर तूफानों का सबब सा कभी, तो कभी प्रशांत में उसके समाओगे,
जीवन की लहरों से चोटिल हुए तो, इसके साहिलों पर वक़्त बिताओगे।
यूँ तो सूरज सुबह का सारथी सा लगे, पर व्यथा रात की क्या सुन पाओगे,
जो आँखें अंधेरों में सुकूं पाती हैं, उन्हें कैसे उजालों की चुभन से बचाओगे।
वो जंगल खामोशी में तठस्थ सा खड़ा, पर भरा है बेचैनियों से ये समझ पाओगे,
जिसकी चीख़ें सघनता में निशब्द गूंजती हैं, कैसे उस गूंज से रिश्ता निभाओगे।
जिस सितारे ने रौशन की अँधेरी राहें, उसी के टूटने की आस लगाओगे,
जाने किसने कह दिया ये की, ‘जिन्हें आँखों में बसाओगे, उन्हीं के टूटने पर दुआएं पूरी कर पाओगे।’
अब जो आईने से अक्स टकराये तो, वहाँ खुद को ढूंढ़ते रह जाओगे,
कभी मुस्कुराहटों भरा एक दरियाँ था जहां, अब एक कतरा देखने को तरस जाओगे।
जहां पलों में कितनी हीं कहानियां बसी थी, वहाँ एक किस्सा भी ना सुन पाओगे,
बस एक अधूरी सी दास्तान मिलेगी, जिसकी अनकही में तुम खो जाओगे।

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