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1 Jul 2025 · 8 min read

समझा है तो सिरधर पाँव

समझा है तो सिरधर पांव, बहुर नहीं रे ऐसा दांव ।।

अगर वास्तव में आप समझदार हैं तो तुरंत वास्तविक परमात्मा अमर परमात्मा की शरण मे आ जावे ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा ।।

ये संसार समझदा नाहीं, कहंदा शाम दोहरे नूं ।
गरीबदास ये वक्त जात है, रोवोगे इस पहरे नूं ।।

ये संसार के लोग समझते नहीं हैं दोपहर को सन्ध्या काल कहते हैं यानि गलत भक्ति साधना करके उसको ही मोक्षदायी मान बैठें हैं,जिससे इनको कोई लाभ नहीं होना । गरीबदास जी कहते हैं कि यह समय हाथ से निकले जा रहा है, सही भक्ति नहीं करोगे तो इस समय को याद करके रोवोगे ।।

ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17

यह उधृत है कि पूर्ण परमेश्वर शिशु रूप में प्रकट होकर अपनी प्यारी आत्माओं को अपना तत्वज्ञान प्रचार कविर्गीर्भि यानी कबीर वाणी से पूर्ण परमेश्वर करते हैं।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17

शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निमरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्राम् अत्येति रेभन्।।17।।

भावार्थ – वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि विलक्षण मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होकर पूर्ण परमात्मा कविर्देव अपने वास्तविक ज्ञान को अपनी कविर्गिभिः अर्थात कबीर वाणी द्वारा निर्मल ज्ञान अपने हंसात्माओं अर्थात् पुण्यात्मा अनुयायियों को कवि रूप में कविताओं, लोकोक्तियों के द्वारा सम्बोधन करके अर्थात उच्चारण करके वर्णन करता है। वह स्वयं सतपुरुष कबीर ही होता है।

सृष्टी रचना

संत गरीबदास जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण
आदि रमैणी (सद् ग्रन्थ पृष्ठ नं. 690 से 692 तक)
आदि रमैंणी अदली सारा। जा दिन होते धुंधुंकारा।।1।।

सतपुरुष कीन्हा प्रकाशा। हम होते तखत कबीर खवासा ।।2।।

मन मोहिनी सिरजी माया। सतपुरुष एक ख्याल बनाया।।3।।

धर्मराय सिरजे दरबानी। चैसठ जुगतप सेवा ठांनी।।4।।

पुरुष पृथिवी जाकूं दीन्ही। राज करो देवा आधीनी।।5।।

ब्रह्मण्ड इकीस राज तुम्ह दीन्हा। मन की इच्छा सब जुग लीन्हा।।6।।

माया मूल रूप एक छाजा। मोहि लिये जिनहूँ धर्मराजा।।7।।

धर्म का मन चंचल चित धार्या। मन माया का रूप बिचारा।।8।।

चंचल चेरी चपल चिरागा। या के परसे सरबस जागा।।9।।

धर्मराय कीया मन का भागी। विषय वासना संग से जागी।।10।।

आदि पुरुष अदली अनरागी। धर्मराय दिया दिल सें त्यागी।।11।।

पुरुष लोक सें दीया ढहाही। अगम दीप चलि आये भाई।।12।।

सहज दास जिस दीप रहंता। कारण कौंन कौंन कुल पंथा।।13।।

धर्मराय बोले दरबानी। सुनो सहज दास ब्रह्मज्ञानी।।14।।

चैसठ जुग हम सेवा कीन्ही। पुरुष पृथिवी हम कूं दीन्ही।।15।।

चंचल रूप भया मन बौरा। मनमोहिनी ठगिया भौंरा।।16।।

सतपुरुष के ना मन भाये। पुरुष लोक से हम चलि आये।।17।।

अगर दीप सुनत बड़भागी। सहज दास मेटो मन पागी।।18।।

बोले सहजदास दिल दानी। हम तो चाकर सत सहदानी।।19।।

सतपुरुष सें अरज गुजारूं। जब तुम्हारा बिवाण उतारूं।।20।।

सहज दास को कीया पीयाना। सत्यलोक लीया प्रवाना।।21।।

सतपुरुष साहिब सरबंगी। अविगत अदली अचल अभंगी।।22।।

धर्मराय तुम्हरा दरबानी। अगर दीप चलि गये प्रानी।।23।।

कौंन हुकम करी अरज अवाजा। कहां पठावौ उस धर्मराजा।।24।।

भई अवाज अदली एक साचा। विषय लोक जा तीन्यूं बाचा।।25।।

सहज विमाँन चले अधिकाई। छिन में अगर दीप चलि आई।।26।।

हमतो अरज करी अनरागी। तुम्ह विषय लोक जावो बड़भागी।।27।।

धर्मराय के चले विमाना। मानसरोवर आये प्राना।।28।

मानसरोवर रहन न पाये। दरै कबीरा थांना लाये।।29।।

बंकनाल की विषमी बाटी। तहां कबीरा रोकी घाटी।।30।।

इन पाँचों मिलि जगत बंधाना। लख चैरासी जीव संताना।।31।।

ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया। धर्मराय का राज पठाया।।32।।

यौह खोखा पुर झूठी बाजी। भिसति बैकुण्ठ दगासी साजी।।33।।

कृतिम जीव भुलांनें भाई। निज घर की तो खबरि न पाई।।34।।

सवा लाख उपजें नित हंसा। एक लाख विनशें नित अंसा।।35।।

उपति खपति प्रलय फेरी। हर्ष शोक जौंरा जम जेरी।।36।।

पाँचों तत्त्व हैं प्रलय माँही। सत्त्वगुण रजगुण तमगुण झांई।।37।।

आठों अंग मिली है माया। पिण्ड ब्रह्मण्ड सकल भरमाया।।38।।

या में सुरति शब्द की डोरी। पिण्ड ब्रह्मण्ड लगी है खोरी।।39।।

श्वासा पारस मन गह राखो। खोल्हि कपाट अमीरस चाखो।।40।।

सुनाऊं हंस शब्द सुन दासा। अगम दीप है अग है बासा।।41।।

भवसागर जम दण्ड जमाना। धर्मराय का है तलबांना।।42।।

पाँचों ऊपर पद की नगरी। बाट बिहंगम बंकी डगरी।।43।।

हमरा धर्मराय सों दावा। भवसागर में जीव भरमावा।।44।।

हम तो कहैं अगम की बानी। जहाँ अविगत अदली आप बिनानी।।45।।

बंदी छोड़ हमारा नामं। अजर अमर है अस्थीर ठामं।।46।।

जुगन जुगन हम कहते आये। जम जौंरा सें हंस छुटाये।।47।।

जो कोई मानें शब्द हमारा। भवसागर नहीं भरमें धारा।।48।।

या में सुरति शब्द का लेखा। तन अंदर मन कहो कीन्ही देखा।।49।।

दास गरीब अगम की बानी। खो
सृष्टी रचना
16. आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण
16. आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण
संत गरीबदास जी की अमृतवाणी में सृष्टी रचना का प्रमाण
आदि रमैणी (सद् ग्रन्थ पृष्ठ नं. 690 से 692 तक)
आदि रमैंणी अदली सारा। जा दिन होते धुंधुंकारा।।1।।

सतपुरुष कीन्हा प्रकाशा। हम होते तखत कबीर खवासा ।।2।।

मन मोहिनी सिरजी माया। सतपुरुष एक ख्याल बनाया।।3।।

धर्मराय सिरजे दरबानी। चैसठ जुगतप सेवा ठांनी।।4।।

पुरुष पृथिवी जाकूं दीन्ही। राज करो देवा आधीनी।।5।।

ब्रह्मण्ड इकीस राज तुम्ह दीन्हा। मन की इच्छा सब जुग लीन्हा।।6।।

माया मूल रूप एक छाजा। मोहि लिये जिनहूँ धर्मराजा।।7।।

धर्म का मन चंचल चित धार्या। मन माया का रूप बिचारा।।8।।

चंचल चेरी चपल चिरागा। या के परसे सरबस जागा।।9।।

धर्मराय कीया मन का भागी। विषय वासना संग से जागी।।10।।

आदि पुरुष अदली अनरागी। धर्मराय दिया दिल सें त्यागी।।11।।

पुरुष लोक सें दीया ढहाही। अगम दीप चलि आये भाई।।12।।

सहज दास जिस दीप रहंता। कारण कौंन कौंन कुल पंथा।।13।।

धर्मराय बोले दरबानी। सुनो सहज दास ब्रह्मज्ञानी।।14।।

चैसठ जुग हम सेवा कीन्ही। पुरुष पृथिवी हम कूं दीन्ही।।15।।

चंचल रूप भया मन बौरा। मनमोहिनी ठगिया भौंरा।।16।।

सतपुरुष के ना मन भाये। पुरुष लोक से हम चलि आये।।17।।

अगर दीप सुनत बड़भागी। सहज दास मेटो मन पागी।।18।।

बोले सहजदास दिल दानी। हम तो चाकर सत सहदानी।।19।।

सतपुरुष सें अरज गुजारूं। जब तुम्हारा बिवाण उतारूं।।20।।

सहज दास को कीया पीयाना। सत्यलोक लीया प्रवाना।।21।।

सतपुरुष साहिब सरबंगी। अविगत अदली अचल अभंगी।।22।।

धर्मराय तुम्हरा दरबानी। अगर दीप चलि गये प्रानी।।23।।

कौंन हुकम करी अरज अवाजा। कहां पठावौ उस धर्मराजा।।24।।

भई अवाज अदली एक साचा। विषय लोक जा तीन्यूं बाचा।।25।।

सहज विमाँन चले अधिकाई। छिन में अगर दीप चलि आई।।26।।

हमतो अरज करी अनरागी। तुम्ह विषय लोक जावो बड़भागी।।27।।

धर्मराय के चले विमाना। मानसरोवर आये प्राना।।28।

मानसरोवर रहन न पाये। दरै कबीरा थांना लाये।।29।।

बंकनाल की विषमी बाटी। तहां कबीरा रोकी घाटी।।30।।

इन पाँचों मिलि जगत बंधाना। लख चैरासी जीव संताना।।31।।

ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया। धर्मराय का राज पठाया।।32।।

यौह खोखा पुर झूठी बाजी। भिसति बैकुण्ठ दगासी साजी।।33।।

कृतिम जीव भुलांनें भाई। निज घर की तो खबरि न पाई।।34।।

सवा लाख उपजें नित हंसा। एक लाख विनशें नित अंसा।।35।।

उपति खपति प्रलय फेरी। हर्ष शोक जौंरा जम जेरी।।36।।

पाँचों तत्त्व हैं प्रलय माँही। सत्त्वगुण रजगुण तमगुण झांई।।37।।

आठों अंग मिली है माया। पिण्ड ब्रह्मण्ड सकल भरमाया।।38।।

या में सुरति शब्द की डोरी। पिण्ड ब्रह्मण्ड लगी है खोरी।।39।।

श्वासा पारस मन गह राखो। खोल्हि कपाट अमीरस चाखो।।40।।

सुनाऊं हंस शब्द सुन दासा। अगम दीप है अग है बासा।।41।।

भवसागर जम दण्ड जमाना। धर्मराय का है तलबांना।।42।।

पाँचों ऊपर पद की नगरी। बाट बिहंगम बंकी डगरी।।43।।

हमरा धर्मराय सों दावा। भवसागर में जीव भरमावा।।44।।

हम तो कहैं अगम की बानी। जहाँ अविगत अदली आप बिनानी।।45।।

बंदी छोड़ हमारा नामं। अजर अमर है अस्थीर ठामं।।46।।

जुगन जुगन हम कहते आये। जम जौंरा सें हंस छुटाये।।47।।

जो कोई मानें शब्द हमारा। भवसागर नहीं भरमें धारा।।48।।

या में सुरति शब्द का लेखा। तन अंदर मन कहो कीन्ही देखा।।49।।

दास गरीब अगम की बानी। खोजा हंसा शब्द सहदानी।।50।।

उपरोक्त अमृतवाणी का भावार्थ है कि आदरणीय गरीबदास साहेब जी कह रहे हैं कि यहाँ पहले केवल अंधकार था तथा पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी सत्यलोक में तख्त (सिंहासन) पर विराजमान थे। हम वहाँ चाकर थे। परमात्मा ने ज्योति निरंजन को उत्पन्न किया। फिर उसके तप के प्रतिफल में इक्कीस ब्रह्मण्ड प्रदान किए। फिर माया (प्रकृति) की उत्पत्ति की। युवा दुर्गा के रूप पर मोहित होकर ज्योति निरंजन (ब्रह्म) ने दुर्गा (प्रकृति) से बलात्कार करने की चेष्टा की। ब्रह्म को उसकी सजा मिली। उसे सत्यलोक से निकाल दिया तथा शाप लगा कि एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का प्रतिदिन आहार करेगा, सवा लाख उत्पन्न करेगा। यहाँ सर्व प्राणी जन्म-मृत्यु का कष्ट उठा रहे हैं। यदि कोई पूर्ण परमात्मा का वास्तविक शब्द (सच्चानाम जाप मंत्र) हमारे से प्राप्त करेगा, उसको काल की बंद से छुड़वा देंगे। हमारा बन्दी छोड़ नाम है। आदरणीय गरीबदास जी अपने गुरु व प्रभु कबीर परमात्मा के आधार पर कह रहे हैं कि सच्चे मंत्र अर्थात् सत्यनाम व सारशब्द की प्राप्ति कर लो, पूर्ण मोक्ष हो जायेगा। नहीं तो नकली नाम दाता संतों व महन्तों की मीठी-मीठी बातों में फंस कर शास्त्र विधि रहित साधना करके काल जाल में रह जाओगे। फिर कष्ट पर कष्ट उठाओगे।

।।गरीबदास जी महाराज की वाणी।।

(सत ग्रन्थ साहिब पृष्ठ नं. 690 से सहाभार)

माया आदि निरंजन भाई, अपने जाऐ आपै खाई।

ब्रह्मा विष्णु महेश्वर चेला, ऊँ सोहं का है खेला।।

सिखर सुन्न में धर्म अन्यायी, जिन शक्ति डायन महल पठाई।।

लाख ग्रास नित उठ दूती, माया आदि तख्त की कुती।।

सवा लाख घडि़ये नित भांडे, हंसा उतपति परलय डांडे।

ये तीनों चेला बटपारी, सिरजे पुरुषा सिरजी नारी।।

खोखापुर में जीव भुलाये, स्वपना बहिस्त वैकंुठ बनाये।

यो हरहट का कुआ लोई, या गल बंध्या है सब कोई।।

कीड़ी कुजंर और अवतारा, हरहट डोरी बंधे कई बारा।

अरब अलील इन्द्र हैं भाई, हरहट डोरी बंधे सब आई।।

शेष महेश गणेश्वर ताहिं, हरहट डोरी बंधे सब आहिं।

शुक्रादिक ब्रह्मादिक देवा, हरहट डोरी बंधे सब खेवा।।

कोटिक कर्ता फिरता देख्या, हरहट डोरी कहूँ सुन लेखा।

चतुर्भुजी भगवान कहावैं, हरहट डोरी बंधे सब आवैं।।

यो है खोखापुर का कुआ, या में पड़ा सो निश्चय मुवा।

महाराज गरीबदास जी अपनी वाणी में कहते हैं:

ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, और धर्मराय कहिये।

इन पाँचों मिल परपंच बनाया, वाणी हमरी लहिये।।

इन पाँचों मिल जीव अटकाये, जुगन-जुगन हम आन छुटाये।

बन्दी छोड़ हमारा नामं, अजर अमर है अस्थिर ठामं।।

पीर पैगम्बर कुतुब औलिया, सुर नर मुनिजन ज्ञानी।

येता को तो राह न पाया, जम के बंधे प्राणी।।

धर्मराय की धूमा-धामी, जम पर जंग चलाऊँ।

जोरा को तो जान न दूगां, बांध अदल घर ल्याऊँ।।

काल अकाल दोहूँ को मोसूं, महाकाल सिर मूंडू।

मैं तो तख्त हजूरी हुकमी, चोर खोज कूं ढूंढू।।

मूला माया मग में बैठी, हंसा चुन-चुन खाई।

ज्योति स्वरूपी भया निरंजन, मैं ही कर्ता भाई।।

संहस अठासी दीप मुनीश्वर, बंधे मुला डोरी।

ऐत्यां में जम का तलबाना, चलिए पुरुष कीशोरी।।

मूला का तो माथा दागूं, सतकी मोहर करूंगा।

पुरुष दीप कूं हंस चलाऊँ, दरा न रोकन दूंगा।।

हम तो बन्दी छोड़ कहावां, धर्मराय है चकवै।

सतलोक की सकल सुनावें, वाणी हमरी अखवै।।

नौ लख पटट्न ऊपर खेलूं, साहदरे कूं रोकूं।

द्वादस कोटि कटक सब काटूं, हंस पठाऊँ मोखूं।।

चैदह भुवन गमन है मेरा, जल थल में सरबंगी।

खालिक खलक खलक में खालिक, अविगत अचल अभंगी।।

अगर अलील चक्र है मेरा, जित से हम चल आए।

पाँचों पर प्रवाना मेरा, बंधि छुटावन धाये।।

जहाँ ओंकार निरंजन नाहीं, ब्रह्मा विष्णु वेद नहीं जाहीं।

जहाँ करता नहीं जान भगवाना, काया माया पिण्ड न प्राणा।।

पाँच तत्व तीनों गुण नाहीं, जोरा काल दीप नहीं जाहीं।

अमर करूं सतलोक पठाँऊ, तातैं बन्दी छोड़ कहाऊँ।।

यजुर्वेद अध्याय 29 मन्त्र 25
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 18
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मन्त्र 9

यजुर्वेद अध्याय 29 मन्त्र 25

यजुर्वेद में स्पष्ट प्रमाण है कि कबीर परमेश्वर अपने तत्वज्ञान के प्रचार के लिए पृथ्वी पर स्वयं अवतरित होते हैं। वेदों में परमेश्वर कबीर का नाम कविर्देव वर्णित है।

समिद्धोऽअद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः।
आ च वह मित्रामहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः।।25।।

भावार्थ- जिस समय भक्त समाज को शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) कराया जा रहा होता है। उस समय कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तत्वज्ञान को प्रकट करता है।

ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17

यह उधृत है कि पूर्ण परमेश्वर शिशु रूप में प्रकट होकर अपनी प्यारी आत्माओं को अपना तत्वज्ञान प्रचार कविर्गीर्भि यानी कबीर वाणी से पूर्ण परमेश्वर करते हैं।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17

शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वह्निमरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्राम् अत्येति रेभन्।।17।।

भावार्थ – वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि विलक्षण मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होकर पूर्ण परमात्मा कविर्देव अपने वास्तविक ज्ञान को अपनी कविर्गिभिः अर्थात कबीर वाणी द्वारा निर्मल ज्ञान अपने हंसात्माओं अर्थात् पुण्यात्मा अनुयायियों को

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