Isn’t strange how so many versions of you live in other peop
చివరికి మిగిలింది శూన్యమే
डॉ गुंडाल विजय कुमार 'विजय'
किसी के मर जाने पर उतना नहीं रोया करता
ॐ दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्।
अपूर्ण नींद एक नशे के समान है ।
नहीं मिलना हो जो..नहीं मिलता
धुप मे चलने और जलने का मज़ाक की कुछ अलग है क्योंकि छाव देखते
कौन कहता है ये ज़िंदगी बस चार दिनों की मेहमान है,
कृष्णा तेरी बांसुरी , जब- जब छेड़े तान ।
लाख बुरा सही मगर कुछ तो अच्छा हैं ।
हे ! निराकार रूप के देवता
नहीं भूला जाना चाहिए कि 1962 में भी मैदान में सेना नहीं, मेज
लातो के भूत बातो से नही मानते
दगा और बफा़
Dr. Akhilesh Baghel "Akhil"
मुक्तक
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'