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20 Jun 2024 · 2 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
अप्रकाशित पुस्तक का नाम: श्री कल्याण कुमार जैन शशि: व्यक्तित्व और कृतित्व (पीएच.डी. की उपाधि हेतु स्वीकृत शोध प्रबंध)
पीएच.डी हेतु स्वीकृत वर्ष: 1988
शोधकर्ता: नंदकिशोर त्रिपाठी ,बॉंदा निवासी
शोध निर्देशक: डॉ मनमोहन शुक्ल
हिंदी प्राध्यापक, राजकीय रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामपुर, उत्तर प्रदेश
समीक्षक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
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रामपुर के सुविख्यात आशु कवि श्री कल्याण कुमार जैन शशि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बॉंदा निवासी श्री नंदकिशोर त्रिपाठी द्वारा रुहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली की पीएच.डी. हिंदी उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध प्रबंध वर्ष 1988 में स्वीकृत किया गया। इसका निर्देशन रामपुर राजकीय रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ मनमोहन शुक्ल द्वारा किया गया।

यह शोध प्रबंध हिंदी की उस वयोवृद्ध साहित्यिक विभूति के जीवन, विचार और रचना कर्म को एक जगह इकट्ठा पढ़ने, समझने और जानने का अवसर प्रदान करता है जो अपने जीवन काल में ही नए-पुराने रचनाकारों के लिए अपनी कर्मठता और कलम की साधुता के कारण आदर्श बन चुके हैं।

इन पंक्तियों के लेखक को श्री शशि जी से भेंट करके शशि शोध प्रबंध के बारे में चर्चा करने का अवसर मिला। तीन सौ अस्सी पृष्ठ का यह शोध प्रबंध श्री नंदकिशोर त्रिपाठी ने डॉक्टर मनमोहन शुक्ल के निर्देशन में काफी मेहनत से तैयार किया है। शशि जी ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि किस लगन मेहनत और उत्साह से नंदकिशोर त्रिपाठी जी ने शशि-काव्य का न केवल अध्ययन-मनन किया; वरन रामपुर में लंबे समय रहकर शशि जी के जीवन, विचार और दिनचर्या को भी निकट से देखा-परखा। नौ अध्यायों और तीन परिशिष्टों में शोध प्रबंध विभाजित है। इन में शशि जी के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय, शशि जी का बाल काव्य, धार्मिक काव्य, गीत, गजल, मुक्तक तथा शशि जी के काव्य में सामाजिक राष्ट्रीय और राजनीतिक प्रवृत्तियों की गंभीर समीक्षात्मक छटा दर्शाई गई है।
गद्य साहित्य के अंतर्गत शशि जी के उपन्यास ‘परिणाम’ पर विशेष चर्चा शोध प्रबंध को मूल्यवान बना रही है।

शोध प्रबंध में सर्व श्री नरेंद्र स्वरूप विमल, रघुवीर शरण दिवाकर राही और डॉक्टर चंद्र प्रकाश सक्सेना ‘कुमुद’ द्वारा शशि और उनके काव्य पर लिखे लेखों को अक्षरशः सम्मिलित किए जाने से पाठकों को कवि के साहित्यिक तप से अभिन्नता स्थापित करने में काफी मदद मिल सकेगी ।
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( नोट: रवि प्रकाश का यह लेख सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक रामपुर के 18 जून 1988 अंक में प्रकाशित हो चुका है।)

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