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30 May 2024 · 1 min read

तपन

यहाँ हवाओं में इतनी जलन क्यूँ है,
कैसी आग है ये शहर में तपन क्यूँ है…

सूखता है हलक बैचैनी है सांसो में,
हर बदन में अजीब ये कुढ़न क्यूँ है…

कोई दरख़्त लगता यहाँ बाकी नहीं रहा,
इन परिंदो में शहर के ये उलझन क्यूँ है…

धधक रहा है आसमां सूखी जमीं पड़ी है,
आखिर ये फ़ज़ा बन गयी दुश्मन क्यूँ है…

अब क़ायदे कायनात के भूली दुनिया,
लगता होती तभी जिंदगी दफन यूँ है….

©विवेक’वारिद*

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