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26 May 2024 · 1 min read

उलझन

उलझन
चले थे लेकर के एक सपना
सभी को खुश रखूंगा मैं
सहूंगा मैं हर आंधी पानी
मगर उफ तक नहीं कहूंगा मैं।

पर अपनों ने ऐसा वार किया
मुझको बिल्कुल झकझोर दिया
खुद तो गिरा रसातल में
मुझको भी उसमे धकेल दिया।

अब नौबत ऐसी आ गई है
इस ओर रहूं उस ओर रहूं
मझधार में मानो नैया है
रुख अपना मैं किस ओर करूं।

कोई आए और समझाए मुझे
किस जगह गलती मैने की है?
यदि गलती नहीं कुछ मेरी थी
तो किस बात की मुझे सजा दी है

दुर्गम जो था उसे पार किया
सुगम दूसरों को उपहार दिया
मेरा त्याग न समझ पाया कोई
किस किस को क्या क्या न दिया

बन कर्ण सदैव जीवन जिया
अपमान गरल को भी पिया
खुश रहे मेरे अरिजन परिजन
हरदम मन में बस यही लिया।

अब और नहीं हो पाता है
पल पल दिल बैठा जाता है
बाहर का सुख भरपूर मिला
पर अंदर से टूटा जाता हूं।

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