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5 May 2024 · 1 min read

मुकद्दर तेरा मेरा एक जैसा क्यों लगता है

मुकद्दर तेरा मेरा एक जैसा क्यों लगता है
सूना घर तेरा मेरा एक जैसा क्यों लगता है

तुम भी हो अकेले और हम भी हैं अकेले
ये तन्हाई का घेरा एक जैसा क्यों लगता है

दिन गुजरे बेचैन नहीं यूँ नींद रात में आए
ये साँझ और सवेरा एक जैसा क्यों लगता है

बिखरे सब ख्वाब हमारे टूटे हैं सपने सारे
दिल का ये अंधेरा एक जैसा क्यों लगता है

है ‘V9द’अधूरा जीवन कैसा हम दोनो का
जाने गम तेरा मेरा एक जैसा क्यों लगता है

स्वरचित
विनोद चौहान

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