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4 May 2024 · 1 min read

इक टीस जो बाकि है

दुनिया की जिम्मेदारियों का बोझ
कंधों पर लाद कर कब तक मैं चलता रहूंगा
जिनके लिए जागा वह सोते चैन से
चिलचिलाती धूप में कब तक मैं जलता रहूंगा

बेवजह नाराज होने की आदत है उनकी
मुड़ मुड़ कर अपनों को कब तक मनाता रहूंगा
जानता हूं मेरी भी कुछ हसरतें जिंदा हैं
अनजान बनकर खुद को कब तक बनाता रहूंगा

बचपन गुजरा जवानी भी मानो ढल ही गई
बुढ़ापे की इक आहट से कब तक मैं घबराता रहूंगा
मतलब निकलते ही सब यार निकल गए
आने वाले तूफान से कब तक मैं टकराता रहूंगा

बचपन में मैंने भी किसी से प्रेम किया था
उस दर्द को याद करके कब तक मैं चहकता रहूंगा
हां याद है चंदन सा बदन था उस मनचली का
उसकी गंध में नहा कर कब तक मैं महकता रहूंगा

इस सफर में बस अकेला मुसाफिर हूं मैं
नामालूम यह किरदार भी कब तक निभाता रहूंगा
अपनों के दिए ज़ख्मों से जिस्म छलनी हुआ
दर्दभरी ये कहानी कब तक खुद को सुनाता रहूंगा

आंखें भी पथरा गई झुरियों का अंबार लगा है
अपने ही घर में कब तक मैं लाचार कहलाता रहूंगा
राह का पत्थर समझ कर सबने है ठुकराया
कांपते हाथों से बुढ़ापे को कब तक सहलाता रहूंगा

Language: Hindi
Tag: Poem
1 Like · 1 Comment · 113 Views
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