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31 Mar 2024 · 1 min read

घरौंदा

हमें क्या मालूम
कि दरख्तों में पत्तियाँ
दम साधे बैठी है,
कोई आवारा बादल भी
बिल्कुल रूठी है।

भोर होने पर देखा
कुछ न था शेष
न ख्वाब, न सपना
न ही घरौंदा अपना।

तब हमने जाना
सब कुछ खोकर भी
कैसे जीये जाते हैं,
रेत के घरौंदे तो
सिर्फ बच्चों के खेल में ही
बनाए जाते हैं।

प्रकाशित काव्य-कृति : ‘पनघट’ से
चन्द पंक्तियाँ।

डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
बेस्ट पोएट ऑफ दि ईयर

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