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19 Mar 2024 · 1 min read

आत्मसंवाद

एक दिन मन ने प्रज्ञा से कहा ,

तुम हमेशा मुझ पर लगाम लगाए रखती हो ,
मुझे अपने मर्जी की नहीं करने देती हो ,

मैं उन्मुक्त रहना चाहती हूं ,
अपनी उड़ान उड़ना चाहती हूं ,
पर तुम मुझे कुछ करने नहीं देती हो ,

प्रज्ञा ने कहा तू नासमझ कभी न समझ पाएगी ,
अपनी मर्जी की कर तू बहुत पछताएगी ,

मेरी लगाम हमेशा तुझ पर है ,
तभी तू अब तक तक खतरों और नुकसान से
बचती रही है ,
अपनी मर्जी की कर तू जब धोखा खाएगी ,
तभी तू समझ पाएगी ,

मैं तो तेरी भलाई ही सोचती हूँ ,
तुझे हर नुकसान और खतरों से बचाती आई हूँ ,

तू जिसे स्वच्छंदता समझती है ,
वह तेरा भुलावा है ,
आजादी के नाम पर छलावा है ,

तू नादान कब यह समझ पाएगी ,
अगर तू मेरा हाथ छोड़कर ; उस उन्मुक्तता रूपी आजादी का हाथ थामेगी ,

तब तय है , तेरी जीवन नैया साजिशों के भंवर में फंसकर ; बेसहारा हो डगमगाएगी ,

और अत्याचार एवं अन्याय रूपी चट्टानों से टूट कर बिखर जाएगी ।

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