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1 Mar 2024 · 1 min read

पता नहीं किस डरसे

बदरा बरसे
सिसके सरसों
हुई दोहरी
सिर रखने काँधे को तरसे ।

कृषक बिचारा
हिम्मत हारा
दौड़ा खेतों
लुटती दुनिया दरसे ।

पीली सरसों
आग समझकर
उसे बुझाने
बादल आए घर से ।

मौसम पल पल
पाल रहा भ्रम
रूप बदलता
पता नहीं किस डर से ।

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