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22 Feb 2024 · 1 min read

कभी उत्कर्ष कभी अपकर्ष

कारवां की चाह में, कंटक लगे उस राह में,
झड़ते पत्तों के माह में , इच्छाओं के दाह में _
वो कर दृढ़ निश्चय चल पड़ा !

व्याप्त जब था चतुर्दिक तमस, प्रेम की परिभाषा हवस,
घर नहीं मात्र इक कफस, मारपीट जब हो बहस _ –
वह बांध तोड़ बस बह गई !

डार्क वेब से बच गया, पर क्रूर राक्षस को जच गया,
शोर बेशक मच गया, जब दर्द ताल पर नच गया_
अबोध बालक भ्रष्ट वयस्क बन गया !

पतझड़ से बेरंग अंतराल में,पंछी विहीन इस डाल में ,
मूक कविता के जंजाल में ,इस दौर में – इस हाल में _
वे खा के नश्तर ढह गए,
न तैर पाए, बह गए ,
कंकाल मात्र ही रह गए ,
भौतिकवादी इस काल में !

Language: Hindi
160 Views
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Books from Mrs PUSHPA SHARMA {पुष्पा शर्मा अपराजिता}
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