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19 Feb 2024 · 1 min read

ग़ज़ल

चुभ रहे हैं रोज़ काँटे पाँव में ।
ठूँठ की छाया बची है गाँव में ।

साग है बेस्वाद दालें ख़ुश्क हैं,
ऐंठते हैं पेट सबके आँव में ।

धूप की तो बात ही अब छोड़िए,
सूखता है आदमी अब छाँव में ।

पीर सुनता कौन है किससे कहें ?
फँस रहे हैं सब परस्पर दाँव में ।

बेवज़ह चिचया रहे हैं पेड़ पर,
अपशकुन की सूचना है काँव में ।

—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।

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