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18 Feb 2024 · 1 min read

लौह पुरुष - दीपक नीलपदम्

आजाद हुए थे जिस दिन हम

टुकड़ों में देश के हिस्से थे,

हर टुकड़ा एक स्वघोषित देश

था छिन्न-भिन्न भारत का वेश।

तब तुम उठे भुज दंड उठा

भाव तभी स्वदेश का जगा

सही मायने पाए निज देश।

थी गूढ़ पहेली टुकड़ों को

आपस में जोड़ बनाने की,

थी विकट घड़ी कौशल तुम्हारा

जग प्रकट अकट हो जाने की।

जगा भाव एकत्व का तब

जब तुमने भाव जगाया था,

स्वतन्त्र बेड़ियाँ तोड़ हुए पर

तुमने तो राष्ट्र बनाया था।

लौह सांकलों से बाँध-बाँध

टुकड़ों में बंटे मन और प्राण,

तुमने संकल्प निभाया था

तुमने ही राष्ट्र बनाया था।

हे लौह पुरुष तुमको प्रणाम

हे लौह पुरुष तुमको सलाम,

भारत के तुम तन मन प्रान

हे लौह पुरुष फिर से प्रणाम।

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

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