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17 Feb 2024 · 1 min read

नज़र बूरी नही, नजरअंदाज थी

नज़र बूरी, लगी मेरे गाँव को
हटानी नज़र थी, हट हम गए ।
चुन लिया, आशियाना शहर को
दूर गाँव की उस पनघट से।

याद आता वह खेत-खलियांन
जोतता हल ,बीज बोता किसान।
गाँव का सूरज, पेड़ो की छाया
देख शहर को, यह मन भाया।

भीड़ , शोरगुल था पसंद नहीं
फिर भी, लगा गाँव से शहर सही।
गाँव मे वो पक्षियों का चहचाहना
नींद सुबह की खूब जगाना।

शहर में तो बस।आना जाना
गाड़ियों का हॉर्न बजाना ।
संगीत पक्षियों का मधुर, मनभाता
शोर शहर का मन को जलाता।

गाँव बहुत है याद आता।
गाँव बहुत है याद आता।।

बीते जिन संग, बचपन के दिन
सूना पड़ा यह शहर उन बिन।
गाँव का वह भाईचारा
इस शहर में न कोई सहारा ।

चिन्तन, मनन कर विश्लेषण
जननी आवश्यक्ता की अन्वेषण।
रस, भाव, प्रेम, गाँव मे पला हैं
शहर में तो बस। शोध चला हैं।

चाह मानव में यहां मानव की नहीं
बिकती रही यहां क्षमता मानव की।
सब कुछ सूना बिन क्षम यहां
मिले कुछ न बिन श्रम यहां।

दया, प्रेम सब मिले मोलकर
मिले यह सब तोल-तोलकर ।
थककर , लथपथ पसिन से।
तुलना मानव की यंहा मशीन से।

होए खराब जब कलपुर्जे
रख लिए जाते यहां तब दूजे।
याद आता तब वह अपना गाँव
क्या खूब थी वह वृक्षों की छाँव

जो गाँव पर मेरी नज़र आज थी
यह नज़र बूरी नहीं, नजरअंदाज थी।।

✍संजय कुमार “सन्जू”

Language: Hindi
255 Views
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