Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
17 Feb 2024 · 1 min read

बड़भागिनी

मैं खुशकिस्मत थी।
इस पंक्ति के बाद के पूर्ण विराम को निहारती।
हाँ! मैं खुशकिस्मत थी।
खूबसूरत से बिछौने पे सोती,
बादलों सी सुगंधित,
लैंप की चाँदनी में टिमटिमाती,
कहीं कोई चुभन नहीं…
किसी की छुअन नहीं…
कहीं कोई गंध नहीं…
कहीं कोई बंध नहीं…
क्यों पुरुष की राक्षसी हरकतें मेरी नींद खराब करें?
आखिर मैं स्त्री हूँ स्ट्रीट नहीं।
अपने चेहरे पे गौरव लिए मैं स्वप्न नगरी जाती हूँ,
खुद ही की बाहों से सहारा लेकर मैं स्वाभिमान पाती हूँ।
हाँ! मैं अपना जीवन खुद ही जीती हूँ – स्वतंत्र हूँ।

फिर भी जाने क्यों

हर रोज़ सोने से पहले
एक तकिया और अपने तकिये के पास रख देती हूँ?
जाने क्यों…?

Loading...