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17 Feb 2024 · 1 min read

मैं अलहड सा

वक्त दे पाया दुनियां को
एक दिन किताबों से निकलकर ।

सोचा था दुनियाँ खूबसूरत होगी
मेरे अलहड से वक्त पर ।।1।।

लोग खूबसूरत थे, दिख रहे थे
चन्द पैसों में बिक रहे थे ।

मैं अलहड़ सा समझ ना पाया
ये बाजारों के हिस्से थे ।।2।।

चन्द फासले आगे चला
वो एकाएक किनारे पे थे ।

लगता है वो शौकिया मिजाज के हैं
वो समंदर की बाहों में थे ।।3।।

दूर नजर का हुआ ठिकाना
पत्थर पर कुछ पत्थर खड़े थे ।

मैं अलहड़ सा समझ ना पाया
ये तो भविष्य के घर थे ।।4।।

देख दीवारों पर फिर बंदर
जंगल,समंदर घर के अंदर ।
लगता हैं सब बदल गया हैं
इंसान जंगल में रह रहा है ।।5।।

फिर लौट आया किताबों में
कुछ बिखरे सवालों में ।

मैं अलहड़ सा समझ ना पाया
दौड़ में कुछ बहुत आगे थे ।।6।।

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