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13 Feb 2024 · 1 min read

12. घर का दरवाज़ा

साँचा मेरे मन-मंदिर का क्यूँ ऐसे गढ़ा था कभी,
सच की आग में तपकर भी झूठे फूल से टूट गया।

रेत को फूँका भट्टी में जब तब कहीं कांच को पाया था,
कांच से दर्पण बन ना सका दर्शन का ढांचा टूट गया।

प्रेम के बादल मन में लिए गुमढ़ रही थी पलकें उनकी,
रहस्यमयी आँसू थम ना सके संवाद का धागा टूट गया।

मूक महल भी कहते होंगे यादों के किस्से बागों को,
महल किसी का घर ना हुआ अंतिम परिवार भी टूट गया।

मैं नाम ‘घुमंतू’ ओढ़े भी लिखता हूँ बिन चले दो पैर,
वो घूमते फिरे सारी दुनिया घर का दरवाज़ा छूट गया।।

~राजीव दुत्ता ‘घुमंतू’

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