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24 Jan 2024 · 1 min read

दादी और बचपन

दादी सुनाती थी अपनी कहानी, उनकी जिन्दगी थी कितनी सुहानी।
था उनका बचपन बड़ा निराला, ना कोई तामझाम, ना कोई परेशानी।
शुद्ध खाना और पहनावा था बहुत ही सादा, सयुंक्त परिवार, बंट जाता था हर काम आधा।
पढ़ने जाते, कर आते सारा काम वहीं,
घर आकर बन जाते स्वच्छंद पंछी।
उनके खेल भी थे अजीबोगरीब,
उन्होंने हमें भी सिखाई कुछ तरकीब।
पिट्ठू, स्टापू, आंख-मिचौली, गिट्टे, कैरम, सांपसीढ़ी।
थी ये दादी की हकीकत, पर लगता था हमें ये सपना।
हम हैं आजकल के बच्चे, क्या जाने क्या होता है सयुंक्त परिवार,
बंद घरों में, देखा हमनें केवल एकल परिवार।
खेल हमारे हैं मोबाइल मे बंद, भूल गए हम गलियार।
दादी का बचपन, लगता जैसे हो एक ख्वाब,
करता है मन, हम भी बन जाएं वैसे ही नवाब।
खूब पढ़े, खेलें गलियों में, हो बहुत ही बड़ा परिवार,
हो पहचान हमें रिश्तों की, मिले खूब सारा प्यार।
हमें जो लगता है एक सपना, बन जाए, हक़ीक़त,
फिर देखो होगा सारा जहान हमारा, बन जाएगी हमारी किस्मत।

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