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3 Oct 2023 · 1 min read

हुस्नों ज़माल पर ये मचलता नहीं है क्यों

हुस्नों ज़माल पर ये मचलता नहीं है क्यों
पत्थर है दिल या मोम पिघलता नहीं है क्यों

आईने कितने रोज़ बदलता रहा हूं मैं
पर ‘अक्स तो वही है बदलता नहीं है क्यों

झीलों सी गहरी आंखें हैं दरिया सी बह रहीं
आंखों में फिर भी उसकी तरलता नहीं है क्यों

बच्चों के हाथ में ये सचल यंत्र आ गया
किलकारियां नहीं वो चपलता नहीं है क्यों

जिस नें संभाला चार को दिन-रात एक कर
बच्चों से भार उनका संभलता नहीं है क्यों

ताउम्र खोजता रहा और उम्र ढल गई
सूरज तुम्हारी याद का ढलता नहीं है क्यों

✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’

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