तू शबिस्ताँ सी मिरी आँखों में जो ठहर गया है,
*मनः संवाद----*
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
इंसान को इंसान ही रहने दो
खुद को मुर्दा शुमार ना करना ,
जब इंसान को किसी चीज की तलब लगती है और वो तलब मस्तिष्क पर हा
मेरे घर की दीवारों के कान नही है
मान न मान मैं तेरा मेहमान