यज्ञोपवीत
आज प्रखर का यज्ञोपवीत संस्कार है — वही प्रखर, जिसे अंग्रेज़ी शिक्षा ने मस्तिष्क से पाश्चात्य और शरीर से भारतीय बना दिया था। शायद इसीलिए वह इस उपनयन संस्कार से विमुख था। परंतु पिता, पंडित उपेंद्रनाथ तिवारी, के सामने उसकी एक न चली। चार समाज में बड़ी इज्जत है तिवारी जी की। उन्हें अपने ब्राह्मणत्व पर गर्व है — और हो भी क्यों न? बीस बिस्वा और छह घर के कान्यकुब्ज ब्राह्मण जो ठहरे, जो इस समुदाय में श्रेष्ठता का मापदंड माने जाते हैं।
प्रखर के लिए यह सब मात्र औपचारिकता थी। वह इन बातों को रूढ़ि मानता था, खोखली परंपरा समझता था। परंतु आज, जब उसने जनेऊ धारण किया — वही जिसे वह अब तक केवल एक धागा मानता आया था — तब अचानक उसके भीतर एक तीव्र जिज्ञासा ने जन्म लिया: “आख़िर इसमें ऐसा क्या है जो पीढ़ियों से ब्राह्मण इसे धारण करते आए हैं?”
यज्ञोपवीत धारण कराते समय जब ब्राह्मण ने उसे उसका रहस्य बताया, तब उसके अंतर्मन में कुछ गूंज उठा — कोई डोर खिंच गई जिसे उसने कभी महसूस नहीं किया था। ब्राह्मण ने कहा —
“इस त्रिसूत्री यज्ञोपवीत में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास है। यह तीन ऋणों — देव ऋण, पितृ ऋण, और ऋषि ऋण — का प्रतीक है। यह तीन गुणों — सत्त्व, रज, और तम — का स्मारक है। गायत्री मंत्र के तीन चरण, जीवन के तीन आश्रम, शरीर के नौ द्वार, ज्ञान और कर्म की पांच-पांच शक्तियाँ, और गांठों में निहित पंचमहायज्ञ – सब इसकी रचना में समाहित हैं।”
ब्राह्मण ने जब शास्त्र की पंक्ति उच्चारित की —
“आदित्या वसवो रुद्रा वायुरग्निश्च धररयाट ।
विप्रस्य दक्षिणे कर्णे नित्य तिष्ठन्ति देवताः ॥”
तो प्रखर के हृदय में पहली बार धर्म की आवाज़ भीतर तक उतर गई। उसे यह अब कोई कर्मकांड नहीं लगा — यह तो एक जीवन यात्रा का आरंभ था। जनेऊ के इन प्रतीकों के पीछे छिपा ज्ञान, वह विज्ञान जिसे उसने कभी जानने की कोशिश नहीं की थी — आज वह सब उसे बुला रहे थे।
अब तक जिसे वह “ब्राह्मसूत्र” नाम का धागा समझता था, वह उसके लिए ब्रह्म का सूत्र बन चुका था।
उसने पिता से अनुमति ली और अध्ययन हेतु काशी चला गया।
काशी में उसका साक्षात्कार एक ऐसे महात्मा व्यक्ति से हुआ, जिन्हें देखकर वैराग्य को भी वैराग्य हो जाए। क्या दीपक सूर्य को रोशनी देगा? उनका वर्णन करना शब्दों के बाहर है। लगता था आज ईश्वर हर प्रकार से प्रखर पर प्रसन्न हैं, क्योंकि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है —
“बिनु हरि कृपा मिलहिं न संता।”
प्रखर ने उन्हें पूर्ण श्रद्धा से अपना गुरु मान लिया। उन्हीं की देखरेख में प्रखर ने चार वेद, चार उपवेद, छह वेदांग, छह शास्त्र, अठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद, महाभारत, श्रीरामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता, मनुस्मृति, वशिष्ठ स्मृति इत्यादि ग्रंथों का अध्ययन किया।
उसने सोलह विद्याओं और चौसठ कलाओं के स्वरूप को भी जाना।
उसे प्रतीत हुआ कि अब तक जो अंग्रेज़ी शिक्षा उसे प्राप्त हुई थी, वह ज्ञान नहीं, मात्र सूचना का संग्रह थी।
उसे अब यह भी समझ में आया कि यदि पाश्चात्य शिक्षा विवेक देती है, तो सनातन परंपरा उसे दिशा देती है — और इन्हीं दोनों के संतुलन में जीवन की पूर्णता है।
अब उसकी विचारधारा पूर्णतः परिवर्तित हो चुकी थी। वह गुरुचरणों में प्रणाम कर पुनः पितृगृह लौटा। अब वह ब्राह्मणोचित उचित कर्म करके उसी से अपनी आजीविका चलाने लगा।
“शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥”
वही प्रखर, जो कुछ समय पहले तक कर्मकांडी ब्राह्मणों को ढोंगी और पाखंडी मानता था — आज वही त्रिकाल संध्या करता है। अब वह न केवल शास्त्र को जीता है, बल्कि उन ब्राह्मणों का भी आदर करता है, जिनका कभी उपहास किया करता था।
प्रखर की यह यात्रा — केवल एक धागे के संस्कार से आत्मज्ञान की ओर — यह दर्शाती है कि परंपरा केवल आचरण नहीं, चेतना है, और संस्कार केवल अनुष्ठान नहीं, आत्मबोध की दिशा है।
जो परंपराएं हमें खोखली लगती हैं, कभी-कभी वही हमें सबसे गहरा आत्मस्मरण कराती हैं। यज्ञोपवीत केवल शरीर पर धारण किया गया सूत्र नहीं, यह एक आदर्श जीवन की गूढ़ स्मृति है — और जब यह स्मृति जागती है, तब एक मनुष्य केवल व्यक्ति नहीं रहता, वह संस्कृति का वाहक बन जाता है।