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25 Jun 2023 · 4 min read

34) अमूल्य निधि का मूल्य

अमूल्य निधि का मूल्य (हास्य व्यंग्य)

हुआ यह है कि जब हमारा कविताओं वाला लोहे का संदूक भर गया तो हमने सोचा कि इसे खाली किया जाए और कविताओं को किसी प्रकाशक को बेचकर कुछ पैसे कमाने का जुगाड़ किया जाए। श्रीमती जी संदूक खाली करने के विचार से उत्साहित थीं ,लेकिन कविताओं की बिक्री के प्रश्न पर उनका कहना था ” तुम अपनी कविताओं को बेचने जाओगे या खरीदने ? ”
हमने पूछा “क्या मतलब ? ” वह कहने लगीं ” पहेलियां मत बुझाओ । लड़की की शादी में मैं दहेज के इंतजाम में जुटी हूँ। लड़का उच्च शिक्षा के लिए फीस भरने के बारे में दिन-रात सोचकर दुबला हो रहा है। और तुम्हें अपनी कविताओं की किताब छपवाने की पड़ी है । प्रकाशक तुम्हें पैसे नहीं देगा बल्कि उल्टे किताब छापने के तुमसे पैसे वसूल करेगा । ”
हमने कहा “अब राजा – महाराजाओं का युग तो रहा नहीं ,अन्यथा एक छंद पर एक सोने की अशर्फी राजदरबार में कवियों को मिला करती थी । अब अधिक नहीं तो चॉंदी का एक सिक्का एक छंद के बदले में मिलने की आशा मैं कर रहा हूं ।”

पत्नी मुस्कुराने लगीं। हम कविताओं को गिनने लगे । एक सौ कविताओं को हमने एक डोर से बॉंधना शुरू किया । एक बंडल बन गया । इसी तरह हम बंडल बनाते गए। कुल मिलाकर पंद्रह बंडल बने अर्थात कविताओं की संख्या कुल पंद्रह सौ थी । अब हमने सारे बंडलों को मिलाकर एक महा-बंडल बना दिया।
कविताओं का महा-बंडल बहुत ज्यादा भारी नहीं था । आसानी से हमने उसे अपने दोनों हाथों पर उठा लिया । घर से निकले। रिक्शा पर बैठे और रिक्शा वाले से कहा “पीछे की सीट पर किसी को मत बिठाना। हमारे पास कीमती वस्तु है ।”
रिक्शा वाले ने उपदेशात्मक लहजे में जवाब दिया “कीमती चीजें जेब में संभाल कर रखा करो ।आजकल जेबकतरे बहुत घूम रहे हैं ।”
हमने कहा “हम जेब की बात नहीं कर रहे हैं । हमारे हाथों में बेशकीमती संपदा है।”सुनकर रिक्शा वाले ने एक उड़ती हुई नजर कविताओं के महा-बंडल की तरफ डाली और उदासीनता से रिक्शा आगे बढ़ाने लगा ।

समय की मार देखिए ,रिक्शा में पंचर हो गया और रिक्शा रुकी भी तो कल्लू कबाड़ी वाले की दुकान के ठीक सामने । हम अक्सर घर के अखबार कल्लू कबाड़ी वाले को लाकर बेच दिया करते थे । हमारे हाथ में कविताओं का महा-बंडल देखते ही दूर से चीखा- ” मास्टर जी ! आज अखबार के बदले यह कापियों की रद्दी कहां से ले आए ? इसका भाव छह रुपए किलो है । आपको सात रुपए किलो लगा दूंगा ।” सुनकर हमारे तन-बदन में आग लग गई ।
हमने कहा “तुम ठहरे दो हजार इक्कीस के हाईस्कूल पास ! तुम भला हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि का मूल्य कैसे आँक सकते हो ? जिसे तुम रद्दी कह रहे हो ,वह सोना और चॉंदी है ।”
कल्लू कबाड़ी वाला हमारी बात का कोई मतलब नहीं समझा । वह दूसरे ग्राहकों से बात करने में व्यस्त हो गया । आजकल किसके पास समय है कि वह चीजों की गहराई में जाकर उन्हें समझता फिरे !
खैर , हमने दूसरी रिक्शा पकड़ी और प्रकाशक-मंडी में जाकर एक अच्छे प्रकाशक से उसकी दुकान पर बात की।

प्रकाशक ने पूछा “कितनी कविताएं हैं ? ”
हमने कहा “पंद्रह सौ हैं।” वह बोला “पचास हजार का खर्चा आएगा।”
हमने पूछा “आप का खर्चा आएगा या हमारा खर्चा आएगा ? ”
प्रकाशक बोला “जब किताब आप छपवाएंगे तो आपका खर्चा आएगा । ”
हमने कहा “चलो , हम कॉपीराइट भी आपको बेच देंगे ।”
वह बोला ” उसको क्या शहद लगाकर चाटुँगा ? आजकल कविताएं कौन पढ़ता है ? चार किताबों के बाद कविता की पांचवी किताब नहीं बिकती । ”
हमारे सिर पर तो घड़ों पानी गिर गया। सारे सपने धरे के धरे रह गए । हमने रुँआसे होकर प्रकाशक से कहा “हमारी कविताएं हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। आज भले ही इनका मूल्यांकन न हो पा रहा हो, लेकिन सौ -दो सौ साल के बाद कोई इनको समझने वाला जन्म लेगा और तब यह बहुमूल्य वस्तु के रूप में स्थापित होंगी।”
प्रकाशक ने व्यंग्य-पूर्वक मुस्कुराते हुए कहा “आप दो-तीन सौ साल की अपनी उम्र कर लीजिए। हो सकता है आपके जीवन काल में ही कोई काव्य- पारखी पैदा हो जाए ।”
हमें बुरा तो बहुत लगा लेकिन संयम बरतते हुए हमने कहा “ठीक है ,तो हम चलते हैं । इतना रुपया तो हम खर्च नहीं कर सकते।”
प्रकाशक टोक कर बोला “एक राय दूं । बुरा मत मानना । ”
हमने जलते – भुनते हुए कहा “अब बुरा मानने को जिंदगी में रह ही क्या गया है ?”
उसने एक किताब अपनी अलमारी में से निकाली और हमसे कहा “रुपए कमाने के एक सौ सरल उपाय -नाम की यह पुस्तक आप मुझसे खरीद लीजिए । वैसे तो चार सौ रुपए की है लेकिन आपको पचास प्रतिशत डिस्काउंट पर मात्र दो सौ रुपए में बेच दूंगा ।”
हमने कहा “भाई साहब ! हम यहां कुछ कमाने के लिए आए थे और आप हमसे जाते-जाते दो सौ रुपए हमारी जेब से निकलवाना चाहते हैं ? यह हम से नहीं होगा।”

उसके बाद हम अपनी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि लेकर अपने घर वापस आ गए। देखा तो संदूक पर श्रीमती जी का कब्जा हो चुका था । उसमें उनकी साड़ियॉं वगैरह रखी थीं। हमने निवेदन किया ” संदूक में हम फिर से अपनी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि की पांडुलिपियों को सुरक्षित रखना चाहते हैं?”
वह बोलीं ” दस-बारह रुपए किलो में इसे बेच दो ,तो पिंड छुटे । वरना किसी दिन पूरे घर में दीमक लग जाएगी ।”
हम भीतर से रो रहे थे । हे भगवान ! हमारी कविताऍं क्या सचमुच दस-बारह रुपए किलो की रद्दी ही हैं ?
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