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21 Jun 2023 · 2 min read

वह स्त्री / MUSAFIR BAITHA

वह स्त्री
एक ओर ख़ुद को स्त्रीवादी कहती है
और विज्ञानवादी भी
और प्रकारांतर से पुरुषसत्ता उखाड़वादी भी
दूसरी ओर अपने पिता और पंडित से
आशीर्वाद टाइप की चीज़ भी लेती चलती है
और, कभी मंदिर के बेजान देवता के आगे बिछते
तो कभी मंगलसूत्र पहने पकड़ी जाती है

वह स्त्री
यह मानती है कि
बाघ और बकरी एक घाट
पानी पी सकते हैं और उस ब्याज से
एक दलित स्त्री और एक दलक स्त्री में
अस्वाभाविक बहनापा भी हो सकता है

वह स्त्री
स्त्री ’बडी शेमिंग’ के जरूरी विरोध में होने का दम भरने के बावजूद
अपनी बौखलाहट में
किसी निर्दोष युवती को अधेड़ बता
उसकी स्त्री देह पर अनधिकार
अपनी विकारी टिप्पणी करते हुए
स्वयं के विचार–खोखला होने को एक्सपोज कर
जवाबी फल पाने और कानूनन वनरेबल कर
ख़ुद की औकात बता जा सकती है

वह स्त्री
अपनी सेक्स कुंठा को
किसी मर्द पर आरोपित करते हुए
यह कह सकती है कि
मर्द तो अपने इरेक्टाइल डिफंशन के साइड इफेक्ट में
मूर्तियों के बूब्स को मसलने की कोशिश कर सकता है

वह स्त्री
ऐसा कहते हुए
स्त्री मास्टरबेशन के डिल्डो और वाइब्रेटर जैसे आधुनिक औजारों के जरिए
ऑर्गेज्म पाने की ईजाद के जरूरी संदर्भों को
अनुभव–सिद्ध होने और अन्यत्र बताते चलने के बावजूद यहां पकड़े जाने के डर से
रणनीतिक और राजनीतिक रूप से
बताने से हिचक सकती है।

वह स्त्री
नहीं मानना चाहती
कि स्त्रीवाद का झंडा गाड़ने की अपनी खोखली कोशिश में
अपने परिवार के पुरुषसत्ता पोषक मर्द और स्त्रियों को
अपने पल्लू में छुपा छुपा कर दरअसल
लोककथा के नंगे राजे की तरह
उघड़े हुए ही चल रही है

वह स्त्री
अपने निरर्थक और बेहूदे ब्लेम – गेम को
दुनिया को समझने के लिए
एक टिपिकल रोंदू स्त्री का आवरण ओढ़
फेसबुक से
खुद के, अपने लोगों के और टारगेटेड व्यक्ति के
कॉमेंट्स हटाकर दुनिया को पतियाने बताने को
यह अंतिम अस्त्र चला सकती है

वह स्त्री
यह नहीं मानती कि
ब्राह्मणवाद वह स्थिति है
जिसमें दलक जात की स्त्री
अपने काउंटरपार्ट मर्दों की तरह ही
दलित स्त्री समेत समूचे दलित समाज की शोषक होकर
सवर्ण पितृसत्ता के साथ होती है

वह स्त्री
इस तरह से
जनेऊ न पहनकर भी
जनेऊलीला में शामिल होती है

वह स्त्री
इस तरह से
खुद को विज्ञानवादी होने के फैशन में
हास्यास्पद रूप से
खिसकती जमीन पर
खड़ी की हुई साबित होती है

वह स्त्री
इस तरह से
किसी उदात्त विचारधारा को लर्न करने के
उत्साह पर तो होती है
मगर, पितृसत्ता के ठेहों को पहचानने और अनलर्न करने की
तमीज न पा सकने के चलते
न घर की होती है न घाट की
और, वीरांगना होने के कोरे नशीले गर्व और भ्रम में
अपनी सुधबुध भुलाए फेसबुक पर जहां तहां
ढाही मारते सनकी चलती है।

Language: Hindi
210 Views
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