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14 Jun 2023 · 2 min read

पढ़ लेना मुझे किताबों में

हे माँ प्रकृति ! तुम हो कहाँ
मैं खोज रही तुम्हें यहाँ-वहाँ।

छुप गयी हल्की सी आहट दे
आओ तुम और मैं कुछ बात करें।

ऐ माँ प्रकृति ! सुन मेरी पुकार
अब मिलता नहीं तेरा दुलार।

मैं अर्ज़ करूँ चमको, दमको
आँगन में मेरे झमझम बरसो।

क्यों रूठी-रूठी फिरती हो
नये रंग क्यों नहीं भरती हो।

कहाँ लुप्त हुआ वो राग मल्हार
कहाँ सुप्त हुआ उपवन बहार।

नहीं होती पवन की सरसराहट
मौन है खगों की चहचहाहट।

क्यों लहरों में अब नहीं कलकल
प्राणी में नहीं खुशी की हलचल।

दिखते नहीं अब इंद्रधनुष के रंग
नहीं चमकती दूब तुषार के संग।

जुगनू भी नहीं करते टिमटिम
सावन में नहीं मिलती रिमझिम।

बच्चों की प्यारी तितली है कहाँ
कुहू-कुहू करती कोकिला है कहाँ।

कुछ बोलो क्यों गुमसुम सी हो
मैं रही पुकार क्यों चुप सी हो।

सुन पुकार मेरी प्रकृति माँ बोली
बंध गयी हिचकी, इतना रो ली।

न दे सकती सावन की खुशी अनंत
हो रहा शुष्क ऋतुराज बसन्त।

क्यों भूल गया मानव मुझको
क्यों रौंद दिया उसने भू को।

काट दिए उसने सब वृक्ष
प्रदूषण से अब नहीं मैं मुक्त।

देख अपराध का बढ़ता बोझ
काँप गयी है मेरी कोख।

व्याप्त ज़मीं पर महामारी
आतंकी पड़े मुझ पर भारी।

लाऊँ कहाँ से वो हरीतिमा
जल रही क्रोध से सूर्य मरीचियाँ।

न दे सकती सुख के हिंडोले
बिन वृष्टि सूखे तरु सजीले।

सौंदर्य पे मेरे लगा कलंक
साक्षी इसका है मयंक।

दफ़न हुई मैं भवनों के नीचे
न मिली पनाह भूधर के पीछे।

न दूँगी अब तुमको आहट
न करना अब मेरी चाहत।

मिल जाऊँगी अब सिर्फ बातों में
या पढ़ लेना मुझे किताबों में।

मिल जाऊँगी अब सिर्फ बातों में
या पढ़ लेना मुझे किताबों में।

रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’

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