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11 Jun 2023 · 1 min read

ग़ज़ल/नज़्म - दस्तूर-ए-दुनिया तो अब ये आम हो गया

दस्तूर-ए-दुनिया तो अब ये आम हो गया,
किसी की बदनामी से किसी का नाम हो गया।

जिसकी वफाओं पर था नाज़ हमें बहुत,
ज़रूरत में वो यार ख़ुद बेनकाब हो गया।

हर चौराहे होती हैं चर्चाएं जिसके हुस्न की,
आज़ बारिश में चेहरा उसका साफ़ हो गया।

किसी के रहमो-करम से है चमक जिसकी,
अपनी तारीफों से वो चाँद बदगुमान हो गया।

किस तरफ़ धकेला शबाब-ए-मुल्क हाकिम,
खून-ए-नौजवाँ बस शराब-शराब हो गया।

इस कदर शोहरत पाई अपने शहर में मैंने,
घर मेरा छोटा हुआ और बड़ा मकान हो गया।

चस्का-ए-दौलत है पहली आरजू सबकी ‘अनिल’,
एहतराम-ओ-ताल्लुकात बस निशान हो गया।

(बदगुमान = शक्की, असंतुष्ट)
(दस्तूर = कायदा, नियम, प्रथा, रीति)
(एहतराम = आदर, इज्जत, मान)
(ताल्लुकात = मेल-जोल, सम्बन्ध)
(शबाब = जवानी, यौवन काल )

©✍️ स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
9783597507
9950538424
anilk1604@gmail.com

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