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10 Jun 2023 · 1 min read

घरौंदा

एक दरख्त
मेरी आशाओं का
मेरी चिरसंचित भावनाओं का
मेरे कुछ अधूरे अरमानों का
मां-पिता के सम्मान का
आज ढह गया है,

उसकी शाखों पर
मेरी तमाम यादों के पन्ने थे
उसकी टहनियों पर
मेरे सुख-दुख का घोंसला था
उसके सब्ज़ पत्तों की रेखाएं
मेरे बीते दिनों की कहानी थी

नहीं रहा वो दरख्त
जिससे लिपट कर पूछूं
किस अपने ने इतनी बेरहमी
से गिराया तुमको
उस नश्तर के निशान
तुम्हें अब भी
लहुलुहान तो करते होंगे?

अब तो बाकी है केवल
उस मौन दरख्त का ठूंठ
जो कभी घना दरख्त हुआ करता था
जिसकी मिट्टी में
बचपन के न जाने कितने
मखमली यादों की परतें अब भी
दफ्न होंगी,

एक बार फिर से
तुम्हारी खोखली जड़ों को
अपने पुरखों की राख और
बचे हुए आंसुओं के गंगाजल से
हरा-भरा करना चाहती हूं

तुम कहो तो
उन बिखरे,टूटे पलों से बुनकर
एक मंगला मौली बना
तुम्हारे सुंदर,निर्मल बदन पर
लपेट दूं,
कुछ तो कहो ना !

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