Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
3 Jun 2023 · 1 min read

विकारग्रस्त मेधा

शुचि मोह, दंभ से आवृत मेधा,
सत्यासत्य से सदा अपरिचित,
विवेक-शून्य हो मानव प्रतिपल,
स्वयंसिद्ध होता नित पशुवत।

स्वयं मात्र आत्मसंतुष्टि हितार्थ,
प्रिय संबंधों में कटुता भर लेता,
बाँटा करता पीड़ाऐं अवनितल,
परिलक्षित दृग में निहित स्वार्थ।

तथ्यों का सत्यान्वेषण और,
गहनदृष्टि से विश्लेषण अति,
जीवन-यात्रा में अपरिहार्य भी,
सुसंस्कार शुचि भी अनिवार्य।

वाणी की अदभुत मधुमयता,
पशुता में होती विलुप्त सी,
भाव,भावना प्रायः अन्तस की,
अज्ञान-तिमिर में रहती सुप्त।

–मौलिक एवं स्वरचित–

अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ(उ०प्र०)

Loading...