Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
19 May 2023 · 1 min read

आज धूप का चौथा दिन है । (नवगीत)

नवगीत

एक महीना
बारिस खा गई
आज धूप का चौथा दिन है ।

रिमझिम -रिमझिम
टपटप- टपटप
वर्षा के पदचाप निरन्तर
दिनकर सुनता
चुपके-चुपके
सोया रहता है अपने घर
नाले ,नदियाँ,
झील,सरोवर
तृप्त हुए ,धरती मुस्काई
पुरवाई
लगती है जैसे
पछुआ पवनों की समधिन है ।

झाँक रही है
युवा पृथ्वी
हरियाली की चादर ओढ़े
दादुर ,मोर
पपीहा, चातक,
कौआ कोयल सा स्वर छोड़े
मेघ मंडली
की प्रतिध्वनि सुन
आह्लादित है, आवेष्ठित हो
ज्यों हाथों में
लिए झुनझुना
नाच रहा नवजात विपिन है ।

बौछारों की
तारतम्यता
हरियाली को लगते चरने
दुलराते हैं
जल की परतें
नदियां, झील, झरोखे, झरने ,
ढूंढ़ रहें खग
अपनी छाया
इंद्रधनुष के रंगों में,
सुख है, दुख है
और दुखों में
घटाटोप सा दुर्दिन है ।

रकमिश सुल्तानपुरी

Loading...