वह ख़ाकी हैं
‘वह खाकी है’
मैंने देखा उसे,
धर्म और जाति से परे
भेद- भाव ,सुख-दुख
से ऊपर है
जहा सभी
अपने ,आखो में ख्वाब लिए ,
सो जाते है
उसका जगना अभी बाकी है
वह खाकी है ।
मैंने देखा उसे,
चलती लू ,तपती धरती ,
या हो रातो की सर्दी
आधी और तूफान में
वनऔर वीरान मे
जहा सभी जाने से ही डरते है
खड़ा होके जिसने सीना तानी है
वह खाकी है।
मैंने देखा उसे,
खड़ा रहता है हर त्योहार मे
नही जा पाताअपने परिवार मे
राष्ट्र की सेवा खातिर,
इच्छाओं की देता कुर्बानी है,
उससे बड़ा न तप कोई,
न उससे बड़ा संन्यासी है
वह खाकी है।
सुनील पासवान
कुशीनगर