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2 Jan 2023 · 1 min read

# मन की मंथरा#

एक मंथरा के खातिर
दशरथ का था घर बिखर गया।
ईश्वर होकर श्री राम प्रभु को भी,
वनवास का था दुख सहना पड़ा।

मन की मंथरा उठ उठ कर,
जब मन में शोर मचाती है।
रिश्तों के माला के मोती,
को पल में बिखेर वो जाती है।

जो अपने रिश्ते तो बचा न पाए,
वो ही दूजे घर आग लगाते हैं ।
न खुश हैं, न किसी को रहने देंगे,
बस यही नीति अपनाते हैं।।

अब घरों में भी राजनीती के ,
खेल खेलें जाते हैं।
अपने ही अपनो पर अब ,
तलवार चलाने आते हैं।

अपने अन्दर कोई न झांके ,
दूजे पर उंगली उठाते हैं।
खुद में मानवता है ही नहीं,
औरों को ज्ञान बांटते हैं ।

जो अपने रिश्ते तो बचा न पाए,
वो ही दूजे घर आग लगाते हैं ।
न खुश हैं, न किसी को रहने देंगे,
बस यही नीति अपनाते हैं।

झूठ को भी सच का चोला,
अब यहां पहनाया जाता है।
एक झूठ सच करने को ,
सौ सच को छुपाया जाता है।

सौ सौ चूहे खाकर के,
जब बिल्ली हज को जाती है।
रिश्तों में आग लगाने को।
बस मन की मंथरा काफी है
रूबी चेतन शुक्ला
अलीगंज
लखनऊ

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