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4 Dec 2022 · 2 min read

■ आलेख / हमारी पहचान

■ #हमारी_पहचान
★ सनातन संस्कृति और गोत्र परम्परा
【प्रणय प्रभात】
सनातम धर्म चिरंतन है और इसकी संस्कृति शाश्वत। जो “वसुधैव कुटुम्बकम” का पुनीत संदेश अनादिकाल से देती आई है। सनातन संस्कृति “विश्व-बंधुता” की बात अकारण नहीं कहती। वह सिद्ध करती है कि सम्पूर्ण मानव-जाति एक वृक्ष है और प्रत्येक मनुष्य उसकी शाखा। अभिप्राय यह कि हम जीवन शैली व विचारधारा के आधार पर अनेकता के बाद भी एक हैं। कारण हैं हमारे आद्य-पूर्वज, जिन्होंने हमे पहचान दी। यह और बात है कि हम कथित विकास और सभ्यता के शीर्ष की ओर बढ़ते हुए इस सच को पीछे छोड़ आए। आगत की शांति व सद्भावना के लिए हमे एक बार फिर अपने समृद्ध व सशक्त अतीत के गौरव को जानने की आवश्यकता है। जिसमे सर्वोपरि है चिरकाल से चली आ रही “गौत्र परम्परा।” जो प्रमाणित करती है कि हम सब ऋषि परम्परा के वंशज हैं और हम सबके पूर्वज मूलतः ऋषि ही हैं। आज आपको बताते है उन 115 ऋषियों के नाम, जो कि हमे हमारा गोत्र भी प्रदान करते हैं।

■ ऋषि परम्परानुसार हमारे पूर्वज व गौत्र…..
अत्रि, भृगु, आंगिरस, मुद्गल, पातंजलि, कौशिक, मरीच,
च्यवन, पुलह, आष्टिषेण, उत्पत्ति शाखा, गौतम, वशिष्ठ और संतान (क)पर वशिष्ठ (अपर वशिष्ठ, उत्तर वशिष्ठ, पूर्व वशिष्ठ व दिवा वशिष्ठ), वात्स्यायन, बुधायन, माध्यन्दिनी, अज, वामदेव, शांकृत्य, आप्लवान, सौकालीन, सोपायन, गर्ग, सोपर्णि, शाखा, मैत्रेय, पराशर, अंगिरा, क्रतु, अधमर्षण,
बुधायन, आष्टायन कौशिक,
अग्निवेष भारद्वाज, कौण्डिन्य, मित्रवरुण, कपिल, शक्ति, पौलस्त्य, दक्ष,.सांख्यायन कौशिक, जमदग्नि, कृष्णात्रेय, भार्गव,
हारीत, धनञ्जय, पाराशर, आत्रेय, पुलस्त्य, भारद्वाज, कुत्स, शांडिल्य, भरद्वाज, कौत्स, कर्दम, पाणिनि, वत्स, विश्वामित्र, अगस्त्य, कुश, जमदग्नि कौशिक, कुशिक गोत्र, देवराज, धृत कौशिक, किंडव, कर्ण, जातुकर्ण, काश्यप, गोभिल, कश्यप, सुनक, शाखाएं, कल्पिष, मनु, माण्डब्य, अम्बरीष, उपलभ्य, व्याघ्रपाद, जावाल, धौम्य, यागवल्क्य, और्व, दृढ़, उद्वाह, रोहित गोत्र, सुपर्ण,
गालिब, वशिष्ठ, मार्कण्डेय, अनावृक, आपस्तम्ब, उत्पत्ति शाख, यास्क, वीतहब्य, वासुकि, दालभ्य, आयास्य, लौंगाक्ष, चित्र, विष्णु, शौनक, पंचशाखा, सावर्णि, कात्यायन, कंचन, अलम्पायन, अव्यय, विल्च, शांकल्य, उद्दालक, जैमिनी, उपमन्यु, उतथ्य, आसुरि, अनूप, आश्वलायन!!
बताना आवश्यक है कि ऋषि आधारित गौत्र की मूल संख्या 108 ही है जिनमे छोटी-छोटी 7 शाखाऐं और जुड़ जाने के कारण कुल संख्या 115 मान्य की गई है।
इतना कुछ बताने का मन्तव्य आपको उन भ्रांतियों से मुक्त कराते हुए अपने विराट से परिचित कराना है, जिसे छिन्न-भिन्न करने के लिए दुष्प्रचार व षड्यंत्र सतत जारी हैं। विश्वास कीजिए कि आप जिस दिन अपनी उत्पत्ति व अस्तित्व का मूल समझ जाएंगे, अपनी हर भूल से उबर जाएंगे। इति शिवाय:।।

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