दावत चिंतन ( हास्य-व्यंग्य )

दावत चिंतन ( हास्य-व्यंग्य )
—————————————————-
प्राचीन काल से ही दावतों का नाम सुनकर मनुष्य के मुँह में पानी आता रहा है। आज भी आ रहा है । दावतें मध्यम कोटि से लेकर उच्च और उच्चतम स्तर तक की होती हैं । दावतों की गुणवत्ता के बारे में पूर्वानुमान अक्सर निमंत्रण पत्र को देखकर लगाया जाता है। आजकल कुछ निमंत्रण पत्र तो इतनी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई के होते हैं कि देखकर लगता है ,मानों निमंत्रण पत्र न होकर कोई मिठाई का डिब्बा आया है। आदमी के मुंह में पानी आ जाता है , लेकिन जब खोल कर देखा जाता है तो उस में से केवल मोटे- मोटे कागजों से भरा हुआ निमंत्रण पत्र ही निकलता है ।
पुरानी कहावत है कि” खत का मजमून भाँप लेते हैं लिफाफा देखकर”। जिस प्रकार लिफाफा देखकर चिट्ठी की सामग्री पता चल जाती है, ठीक उसी प्रकार से अगर निमंत्रण पत्र जोरदार है तो यह माना जाता है कि दावत भी जोरदार होगी। हालाँकि कई बार “ऊँची दुकान, फीके पकवान” वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है अर्थात निमंत्रण पत्र तो कीमती है लेकिन दावत साधारण रह जाती है ।अनेक बार ऐसा भी होता है कि होटल तो फाइव स्टार है लेकिन दावत एक स्टार के बराबर भी मूल्यवान नहीं होती है। इसे कहते हैं “नाम बड़े , दर्शन छोटे “।कई बार साधारण परंपरागत खाना इतना स्वादिष्ट होता है कि आदमी उँगलियाँ चाटता हुआ रह जाता है और वाह-वाह करता है।
दावत का समय निमंत्रण पत्र में चाहे कुछ भी लिखा हो लेकिन रात्रि प्रीतिभोज नौ बजे से पहले आम तौर पर शुरू नहीं होता है। दावतों में कई बार आयोजक इस बात की प्रतीक्षा करते हैं कि थोड़ी भीड़ हो जाए, तब खाना शुरू किया जाए ।बेचारे अतिथिगण खाने की मेजों के सामने ललचाई आँखों से उदासीनता ओढ़े हुए बैठे रहते हैं और सोचते हैं कि कब सब्जियों पर से ढक्कन हटाकर उनका अनावरण होगा और कब हमारे मुँह में भोजन का कौर जाएगा । एक जगह जब आयोजकों ने काफी देर लगा दी तो अतिथि गणों ने आँखों ही आँखों में एक राय होकर भोजन पर धावा बोल दिया और बिना आमंत्रित किए ही खाना शुरु कर दिया। बेचारे आयोजक देखते रह गए।
कई बार दावत में आइटम इतने ज्यादा होते हैं कि व्यक्ति सबको चखता है और चखने-चखने में पेट भर जाता है । कई बार लोग खाने की बर्बादी करते हैं और एक दौने में आधा खाते हैं, आधा फेंकते हैं । जब से स्वच्छ भारत अभियान शुरू हुआ है, तबसे लोग दौना फेंकते समय कूड़ेदान की तलाश करने लगे हैं। वरना पहले जहाँ खाया , वहीं फेंक दिया। पता चला कि जिस स्थान पर आलू की टिकिया खा रहे हैं वहाँ आलू के जूठे पत्ते पड़े हैं और जहाँ दहीबड़ा खाया, उसके पास जमीन पर जूठे दही के पत्ते पड़े हैं ।अब ऐसी स्थिति नहीं है ।
दावत के साथ पता नहीं इतिहास के किस दौर में लिफाफा ऐसा जुड़ गया कि मानों चोली- दामन का साथ हो गया। दावत है तो लिफाफा है। कई लोग लिफाफे के स्थान पर कुछ गिफ्ट दे देते हैं। कई बार गिफ्ट बाजार से बहुत सुंदर खरीद कर लाया जाता है और इस दृष्टि से उसे दिया जाता है कि आयोजक जब गिफ्ट खोले तो उसकी तबियत प्रसन्न हो जाए । लेकिन कई बार गिफ्ट बड़ा होता है और उसके अंदर से जो सामग्री निकलती है उसे देखकर आयोजक सिर पीट लेता है । कई बार कुछ गिफ्ट ऐसे होते हैं जो एक व्यक्ति देता है और उसके बाद वह 10-12 दावतों तक घूमते रहते हैं। पता चला कि कमरा तो गिफ्ट से भरा पड़ा है लेकिन काम का एक भी नहीं है। कई लोग तो इतने परेशान हो जाते हैं कि वह निमंत्रण पत्र पर यह भी लिखने लगे हैं कि हमें कृपया गिफ्ट बॉक्स न दिया जाए । तात्पर्य यह है कि लिफाफे की महिमा बढ़ती जा रही है।
लिफाफे के बारे में समस्या यह भी है कि कितने का दिया जाए ? जब निमंत्रण पत्र आता है तो पहली गोलमेज कांफ्रेंस घर में यही होती है कि लिफाफा कितने का दिया जाएगा । जिनको पुरानी याद होती है, वह बताते हैं कि हमारे यहाँ इन्होंने इतने रुपयों का लिफाफा दिया था । लेकिन फिर दूसरे लोग गोलमेज कांफ्रेंस में अपनी राय देते हैं कि तब से अब तक मँहगाई बहुत बढ़ गई है, अतः ज्यादा का देना होगा । बहुत से लोग दावतों को इसलिए गोल कर जाते हैं क्योंकि लिफाफा देना उनके बजट से बाहर होता है । कई लोग जब दावते देते हैं तो जिस स्तर की दावत होती है , उसी स्तर के भारी- भरकम लिफाफे की भी उम्मीद लगा कर बैठते हैं । अगर लिफाफा हल्का है तो उनका दिल डूब जाता है। वह उदास हो जाते हैं ।
दावत के बाद फुर्सत से घर पर बैठकर लिफाफे खोलकर उसमें से निकलने वाले रुपए तथा भेंटकर्ता का नाम स्थाई रूप से डायरी में लिखना एक अपने आप में बहुत बड़ा आयोजन होता है । परिवार के सब लोग इकट्ठे बैठ जाते हैं और एक-एक करके लिफाफा खुलता जाता है। एक आदमी ऊँचे स्वर में बताता जाता है कि अमुक व्यक्ति का लिफाफा खुला है और उसमें से इतने रुपए निकले। अगर रुपए कम आए हैं तो इस पर बाकी सब लोग टिप्पणी करते हैं और कहते हैं कि देखो! कमाता तो इतना है लेकिन दिल नहीं है । कई लोग तो ऐसे मुँहफट होते हैं कि साफ-साफ कह देते हैं कि भाई साहब ! हमारे यहाँ प्रति प्लेट इतने रुपए की थी, जबकि कुछ लोगों ने तो इसका चौथाई भी लिफाफे में नहीं दिया। कई बार जिससे यह बात कही जा रही होती है, उसने वास्तव में कम का लिफाफा दिया होता है और वह यह समझ नहीं पा रहा होता है कि इस बात का क्या जवाब दिया जाए !
प्रति प्लेट दावतें होने की वजह से दावतों का ठेका प्रति प्लेट दिया जाता है। कई बार कुछ चतुर लोग जो घर के होते हैं वह आपस में विचार विमर्श करके प्लानिंग कर लेते हैं कि एक ही प्लेट में पन्द्रह लोग खा लेंगे। पता चला कि चाचा चाची, भतीजी भतीजा, ताऊ ताई ,उनके बच्चे सब मिलकर एक ही प्लेट में खाए जा रहे हैं ।जो हलवाई है ,वह देखता है और आकर टोकता है । कहता है कि यह सब क्या है ? आयोजकों का परिवार कहता है ,भाई साहब ! हमारे संयुक्त परिवार में बहुत प्यार है ,यह सब उस प्यार का एक छोटा सा नमूना मात्र है। हलवाई कहता है कि संयुक्त परिवार का प्यार अपने घर में रखो ,यहाँ पर एक प्लेट में केवल एक व्यक्ति खाएगा।
आजकल दावतें शहर के बाहर होती हैं, जहाँ केवल कार से ही जाया जा सकता है। अतः निमंत्रण पत्र आने के बाद दो- चार लोग आपस में चर्चा करने लगते हैं कि दावत का निमंत्रण पत्र क्या आपके पास भी आया है ? कई बार सामूहिक रूप से टैक्सी कर ली जाती है। कई बार घर का एक सदस्य किसी दूसरे की कार में एडजस्ट हो जाता है। दो लोग प्रायः एडजस्ट नहीं हो पाते हैं।
जाड़ों में प्रायः दावतें ज्यादा होती हैं। सूट और टाई पहन कर जाना जरूरी हो गया है ,क्योंकि बाकी लोग भी सूट और टाई पहनते हैं । दावतों के सीजन में अगर कोई रात के नौ बजे सूट और टाई पहन कर आपको कॉलोनी में टहलता हुआ दिखे तो समझ जाइए कि वह दावत में ही जा रहा है। दावतों में जाने के लिए आमतौर पर एक सूट पूरे सीजन चल जाता है। बाद में उसे ड्राईक्लीन करा कर अलमारी में टाँग देते हैं और फिर जब जाड़ों में दावतें शुरू होती हैं तो निकाल कर इस्तेमाल में ले लिया जाता है। सूट को बहुत हिफाजत से रखा जाता है ताकि वह पूरे जाड़ों काम कर सके। कई बार दावतों में किसी की सब्जी प्लेट से उछलकर किसी के सूट पर जाकर गिर जाती है, तब वातावरण शोकाकुल हो जाता है क्योंकि सबको मालूम है कि पीड़ित व्यक्ति अब अगली दावत में कैसे जाएगा ?
दावतें कई बार बहुत खुले लम्बे-चौड़े मैदान में होती हैं, इतना खुला मैदान कि एक जगह से दूसरी जगह जाते- जाते टाँगे थक जाती हैं। जिनको घुटने की बीमारी होती है, वह दावतों में जाकर एक मेज पर बैठ जाते हैं । ज्यादातर मामलों में महिलाओं के पति उनको भोजन ला-लाकर देते रहते हैं। पहले एक दौना लाये, फिर दूसरा दौना लाकर दिया ।और फिर पूछने आए कि तीसरा दौना लाऊँ कि नहीं लाऊँ। कई बार पतिदेव दावत में जाकर छूमंतर हो जाते हैं और फिर जब आधे घंटे बाद उनकी पत्नी का उनसे मिलन होता है तब उनको डाँट पड़ती है कि क्यों जी ! आप कहाँ चले गए थे, मैंने अभी तक कुछ नहीं खाया है । कुछ दावते इतनी छोटी जगह में होती हैं कि वास्तव में ऐसा लगता है जैसे एक के ऊपर एक चढ़ा जा रहा है। गोलगप्पे वाले के पास हमेशा ही इतनी भीड़ होती है कि जिसके हाथ में दौना आ गया और वह गोलगप्पे वाले के ठीक सामने खड़ा हो गया, वह अपने आप को ऐसे समझता है जैसे उसकी लाटरी निकल आई हो ।
दावत खाने वाले के जहाँ खुशी और गम हैं ,वहीं दूसरी ओर दावत देने वाले के भी खुशी और गम कम नहीं होते। दावत देने वाला खुशी में दावत देता है ,यह बात तो सही है। मगर कई बार उसके पास भी यद्यपि दावत देने का बजट नहीं होता है लेकिन लोकलाज के लिए उसे दावत देनी पड़ती है। कई बार लोग कर्जा लेकर दावत देते हैं और फिर उस दावत के कर्जे को परिवार में अगली दावत के आयोजन तक वर्षों चुकाते रहते हैं। यह भारतीय समाज की एक बड़ी विडंबना है।
—————————————————
लेखक: रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर( उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451