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26 Aug 2022 · 1 min read

*चार दिवस का मेला( गीत )*

चार दिवस का मेला( गीत )
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चार दिवस की काया सबकी चार दिवस का मेला
(1)
बचपन बीता गई जवानी फिर बूढ़े कहलाए
टूटे दाँत झुर्रियाँ आँखों पर चश्मे चढ़ आए
सजी स्वर्ण- सी देह रह गई बस मिट्टी का ढेला
(2)
चार दिवस डुगडुगी बजाकर मजमा खूब लगाया
चार दिवस कुछ मिली वाहवाही खोया कुछ पाया
चार दिवस की रही भीड़ फिर जाता राह अकेला
(3)
जन्म लिया था बिना वस्त्र के कफन ओढ़कर जाता
घटता और न बढ़ता धन सब धरती का कहलाता
चार दिवस की खेल जिंदगी चार दिवस बस खेला
चार दिवस की काया सबकी चार दिवस का मेला
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रचयिता : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 5451

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