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6 Aug 2022 · 1 min read

दोहे एकादश...

दोहे…

बाहर से मीठा बने, भीतर रक्खे पाप।
छोड़ो ऐसे मित्र को, देता बस संताप।।१।।

नया जन्म हर दिन समझ, मान मरण हर रात।
ऊर्जस्वित हो कर्म कर, दे किस्मत को मात।।२।।

मन का भी श्रंगार कर, न सिर्फ देह सँवार।
परम तत्व के सामने, लगे न कहीं गँवार।।३।।

खातिर जिनकी जी रहे, दें जब वे ही पीर।
दिल पर भाले से चुभें, रिसे नयन से नीर।।४।।

निर्धन को कंबल दिए, पूछा फिर अहसास।
ओस चाटने से कहो, बुझी कभी क्या प्यास।।५।।

अपने दोष दिखें नहीं, देखे पर में खोट।
स्वारथ अपने साधता, दे औरों को चोट।।६।।

मतलब के सब यार हैं, झूठी सबकी प्रीत।
‘सीमा’ तू जाने नहीं, क्या इस जग की रीत।।७।।

झरते फूल पलाश के, लगी वनों में आग।
रंग बनाएँ पीसकर, खेलें हिलमिल फाग।।८।।

ये रस की रंगरलियाँ, ये उत्सव ज्यौनार।
सब हैं कोरी मृगतृषा, भ्रामक सब संसार।।९।।

बंदे हैं सब एक से, जात-पाँत सब व्यर्थ।
खुशियों के संसार में, रचते यही अनर्थ।।१०।।

नहीं नकल हो और की, बने अलग पहचान।
वरद हस्त सर पर धरो, आशुतोष भगवान।।११।।

© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“काव्य अनुभा” से

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