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12 Jun 2022 · 1 min read

मृगतृष्णा / (नवगीत)

सिलबट्टे पर
चटनी जैसा
घिसता रहता आदमी ।

एक यहाँ की,
एक वहाँ की
डींग मारता ।
जाने किसकी
कहाँ-कहाँ की
हींग फाँकता ?

ख़ुद जाले में
मकड़ी जैसा
उलझा रहता आदमी ।

गिरगिट जैसा
रंग बदलता
झटपट-झटपट ।
मृगतृष्णा में
भागा,फिरता,
सरपट-सरपट ।

बिन पेंदी के
लोटे जैसा
लुढ़का रहता आदमी ।

उल्लू जैसा
जाग रहा है
रातों-रातों ।
आलस के पल
काट रहा है
बातों-बातों ।

बिना नमक के
भोजन जैसा
ज़िन्दा रहता आदमी ।

सिलबट्टे पर
चटनी जैसा
घिसता रहता आदमी ।

0000
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।

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