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17 Apr 2022 · 1 min read

पिता अब बुढाने लगे है

फलक पे जो देखो ढलकते रवि को
नजर मे ले आना पिता की छवि को
बहोत दिन हुए है तुम्हे घर को आये
तुम्हे काम के सौ बहाने लगे हैं
तुम्हारे पिता अब बुढाने लगे है

मेरे फोन की जब भी बजती है घंटी
चहलकदमीयाँ करते है पास आकर
जब सुनते है “पापा को कहना नमस्ते”
भीगी आँखो से, हाथों को थोड़ा उठाकर
अपनी आशिष मे रामरक्षा मिलाकर
होठों ही होठों मे बुदबुदाने लगे है
तुम्हारे पिता अब बुढाने लगे है

न पढने पे, जो बल्ला तोडा गया था
लिये हाथों में बैठे रहते है घंटो
न पढ़ते है अब गोर्की, टाॅलस्टाय
तुम्हारी दराजों से ढूंढा है मंटो
नाम सुनते ही जिसका वो गुस्सा हुए थे
कहानी वो पढकर सुनाने लगे है
तुम्हारे पिता अब बुढाने लगे है

तुम्हे याद है चिठ्ठी पकडी थी जिस दिन
फलसफ़े ज़िन्दगी के तुम्हे थे पढ़ाये
मगर जानती थी मैं आँखो में उनकी
उतर आये थे उनके माज़ी के साये
जमाने से लड़, जबसे तुमको जीताया
मोहब्बत भरे गीत गाने लगे है
तुम्हारे पिता अब बुढाने लगे है
भले एक दिन के लिये ही जो आओ
नज़ाकत से उनकी कलाई पकड़ना
बढ़ी आजकल उनकी दाढ़ी मिलेगी
उसपे गालों को बचपन के जैसे रगड़ना
न बोले मगर दे ही देना सहारा
वो चलते हुए डगमगाने लगे है
तुम्हारे पिता अब बुढाने लगे हैं

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