√√शाम ढलती है 【गीतिका 】
शाम ढलती है 【गीतिका 】
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(1)
किरण सूरज की खुशियों से भरी घर से निकलती है
उदासी में सिमट जाती है ,जब भी शाम ढलती है
(2)
भले ही छल-कपट से चाहे जितनी बाजियाँ जीतो
मगर यह जिंदगी आखिर में केवल हाथ मलती है
(3)
चले यूँ तो हमेशा सत्य की राहों ही पर हम भी
मगर जेबों की मायूसी कभी थोड़ी-सी खलती है
(4)
किसी के रहने न रहने से अंतर कुछ नहीं पड़ता
दुनिया जैसी चलती थी ,अभी भी वैसी चलती है
(5)
बसंती मद-भरा मौसम जरा महसूस तो करिए
हवा तक इन दिनों मस्ती में सड़कों पर टहलती है
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रचयिता: रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 9997615451