Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
18 Feb 2022 · 1 min read

कैसे मैं खुशियां पिरोऊं ?

बरस सोलह जिन्दगी के
संग तेरे है रचे।
जाने कितने शीत ताप
संग में हमने सहे।
हम कभी विचलित हुए
और कभी तुम भी थके।
किन्तु सब नैराश्य तज
फिर सदा आगे बढ़े।
न बहुत उल्लास था
पर प्रेम व अनुराग संग
विश्वास की धारा में हम
नित शान्ति से बहते रहे।
आकाश जो तुमसे मिला
उसमें ही जीवन बुना।
जो तुम्हारी राह में हो
पथ सदा ही वो चुना।
हौंसले जो मन में थे
तुमसे उन्हें सम्बल मिला।
विश्वास जो तुमने किया
उत्साह का नव पथ मिला।
किन्तु अब कुछ दैव जो
विपरीत है अपने खड़ा।
और तुम्हारा मन भी तो
बस एक खुशी पर है अड़ा।
दैव को जो वंचना दे
युक्ति ऐसी है नहीं।
किस तरह दें वो खुशी
जो हाथ में मेरे नहीं।
आज वो ही दिवस है
एकसूत्र में जब हम बंधे।
बस उसी पल से ही हमने
संकल्प सब मन में धरे।
संकल्प था तुमको सदा
आनन्द की सौगात देंगे।
जी सको संतुष्ट जीवन
इतना तुमको प्यार देंगे।
विडम्बना ये भाग्य की
अवरोध मैं ही बन गई।
अंक न रच पाई वंश
शून्यता घर भर गई ।
न समझ आता है कुछ
आज मैं खुश हूं या रोऊं।
किस तरह से जिन्दगी में
मै तेरी खुशियाँ पिरोऊं?

Loading...