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29 Jan 2022 · 3 min read

धोबी का कुत्ता घर का न घाट का

#धोबी_का_कुत्ता_घर_का_न_घाट_का
-विनोद सिल्ला

मुझे आज तक यह समझ नहीं आई कि कुत्ता धोबी का कैसे था? निसंदेह वह पैदा नहीं हुआ होगा, धोबी की पत्नी की कोख से। धोबी की पत्नी उसे दहेज में भी लेकर नहीं आई होगी। वह धोबी का दत्तक पुत्र भी नहीं होगा। फिर भी बिना सोचे-समझे, बिना तर्क-वितर्क किए ही ठहरा दिया धोबी का कुत्ता। खैर यह रही पुराने समय की बात। उस समय धोबी जैसे आमजन की पहुंच न्याय और न्यायालय तक नहीं थी। धोबी ने भी जमानेभर के इल्ज़ाम अपने सिर सहर्ष या अनमने ढंग से ओट लिए। आज की बात होती तो मामला बीस साल से अदालतों में लटक रहा होता। बेचारा धोबी अपनी खून पसीने की गाढ़ी कमाई काले चोगे वालों के चक्कर में लुटा रहा होता। कुत्ता कुछ दे नहीं सकता था। मात्र उनके आगे-पीछे अपनी इकलौती पूंछ हिला सकता था। सोशल हिलाता रहता। कोलेजियम के अवतार तारिख पर तारिख दे रहे होते। ज्यों-ज्यों समय गुजरता जांच के दस्तावेजों वाली फाइल और अधिक मोटी होती जाती। मामले से संबंधित तरह-तरह के तर्क-वितर्क और कुतर्क प्रस्तुत किए जाते।
मामला नारायण दत्त तिवारी के नाम की स्पेलिंग की तरह लम्बा खिंचता चला जाता। दंतकथाओं, पौराणिक कथाओं के साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते। पोथियों के पन्ने फरोले जाते। फिर मामला न धोबी का रहता न कुत्ते का। सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक दबाव समूह अपना पक्ष रखते। समाचार-पत्रों, न्यूज चैनलस को डिबेट करवाने के लिए एक से बढ़कर एक मसाला मिलता। उनकी टीम आर पी फलती फूलती सो अलग। कोई न्यायमूर्ति अपने-आपको मामले से अलग करता। तो कोई अपने-आपको जबरन घुसाता। कुछ प्रैस कॉन्फ्रेंस करके कहीं नजर रख कर कहीं पर निशाना लगाते। संबंधित मामला बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ जाता। अनेक दुकानदार अपनी-अपनी दुकान में यह लिख कर लगाते कि धोबी और कुत्ते वाले मामले के निपटारे तक उधार बंद है।
मामले में रोज नया मोड़ आता या लाया जाता। कभी घाट चर्चा का विषय बनता तो कभी घर, कभी कुत्ता या फिर कभी धोबी चर्चा का विषय बनता। कभी मामला आस्था से जुड़ा बन जाता तो कभी संस्कृति से जुड़ा। कभी सामाजिक मुद्दा बनता, कभी राजनीतिक, कभी सांस्कृतिक तो कभी भावनात्मक। समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय मिडिया भी मद्दे पर चुटकी लेता, सुर्खी बनता या व्यंग्य कसता। धोबी और कुत्ता दोनों हाई प्रोफाइल सेलिब्रिटीज से कम नहीं होते। हो सकता है उन्हें जेड प्लस सुरक्षा मुहैय्या करवाई जाती। मामले को लेकर सभी राजनीतिक दल का अलग-अलग दृष्टिकोण होता। सदन की कार्रवाई में अनेक बार चर्चा का विषय बनता। प्रत्येक राजनीतिक दल की मामले के संदर्भ में अपनी-अपनी रुचियां होती। कोई राजनीतिक दल धोबी के पक्ष में होता, कोई कुत्ते के पक्ष में, कोई घाट के पक्ष में तो कोई घर के पक्ष में। सभी राजनीतिक दल मामले का निपटान भी अपने मन मुताबिक चाहते। कोलेजियम के अवतारों और समय की सरकारों के बीच निर्णय सुनाए जाने के एवज में क्या-क्या सांठ-गांठ होती। निर्णय सुनाए जाने की एवज में सेवानिवृत्ति उपरान्त किसी को राज्यसभा की सदस्यता का सब्जबाग दिखाया जाता। किसी को सौदेबाजी में राज्यपाल बनाया जाता। मन-माफिक निर्णय लिखवाया जाता। चंद लोग चार दिन हो हल्ला करके रह जाते। निर्णय लागू हो जाता।
लेकिन वर्तमान में “धोबी का कुत्ता न घर नघाट का” लोकोक्ति से न तो धोबी को एतराज, न कुत्ते को और न ही कुत्ते की वफादारी को। घर और घाट को एतराज होना ही नहीं।

-विनोद सिल्ला
771/14, गीता कॉलोनी, नजदीक धर्मशाला, डांगरा रोड़, टोहाना, जिला फतेहाबाद (हरियाणा) 125120

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