Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
9 Dec 2021 · 1 min read

पिछोला की दास्तां

चांद निहारे मुखड़ा अपना छिप -छिप के जहाँ मीलों से,
शाम ढले चौपालें सजती झिलमिल झिलमिल झीलों से,

जयशंकर जी, राव, ब्यास की लिखी अमर कहानी हूँ
शौर्य, प्रेम, संयोग,विरह की बहती अमिट निशानी हूँ,

जग और मोहन मंदिर,से सजती झील पिछोला हूँ,
हर मौजों में संगीत लिए मै शहर सजाती चोला हूँ,

तटें मेरी थीं शान शहर की बदली हुई सी लगती हैं,
नित तटों से टकरा कर मौजें व्यथा हमारी कहती हैं,

काँच सी मेरी चमक थी बोलो कैसे अब धुंधलाई है
निर्मल, सुंदर छवि मेरी क्यूँ मैले रूप में आई है?

नीलकंठ सी मैं भी तो नित विष को धारण करती हूँ,
कोई दर्द देखता क्यूँ ना मेरा सोच के आहें भरती हूँ,

सुनो व्यथा मेरी मैंने तुम्हें इस आंचल में पाला है,
था जिसे सजाना पुष्पों से तुमने कंटक भर डाला है,

रंग बदलती जलधाराएँ मेरे ज़ख़्म दिखाती है,
नीर, नीर की देख दुर्दशा नयनों नीर बहाती है,

क्षीर -सा नीर पिलाकर मैंने तुम सबको तो बड़ा किया,
कूड़े -कचरों में लाकर फिर क्यूँ मुझको यूँ खड़ा किया?

माँ सम मैंने प्यार दिया है पुत्र का धर्म निभाओ तुम,
नालों के जल से आँचल पर ऐसे ना दाग लगाओ तुम,

झीलों की नगरी मेवाड़ी शान को ना बर्बाद करो,
निर्मल रक्खो जलधारा छवि मेरी आबाद करो…
?????????

Loading...